Thursday, March 18, 2010

भारत-पाक वार्ता के खतरे

पुणे में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान ने विदेश सचिव स्तर की वार्ता के लिए भारतीय पेशकश का स्वागत किया। विदेश सचिव स्तर की इस वार्ता की कोई जल्दी नहीं थी, क्योंकि वार्ता से ठीक पहले अफगानिस्तान में पाकिस्तान समर्थित जिहादी गुटों के हमले में हमारी सेना के तीन चिकित्सकों सहित कई अन्य भारतीय मारे गए। यह एक नया मोर्चा है जो पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ खोला है। पिछले 14 महीने से भारतीय ठिकानों के खिलाफ हमले में जो कमी आई थी, वह इस हमले के बाद खत्म हो गई है। इस वजह से भी दोनों मुल्कों के विदेश सचिव की वार्ता के दौरान तंगदिली साफ नजर आई। आम तौर पर किसी भी दो पड़ोसी देशों के बीच नियमित तौर पर राजनयिक बातचीत होनी चाहिए, मगर पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान परमाणु बम की आड़ में लगातार भारत के खिलाफ सरहद पार से दहशतगर्दी को बढ़ावा देते रहे हैं। भारत-पाक वार्ता में कुछ भी सामान्य नहीं। कम से कम आठ ऐसे मुद्दे हैं जिनके कारण इस वार्ता ने नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया। पहला मुद्दा है अपनी ही नीतियों से अचानक भारत का यू-टर्न, जिसे उचित ही पाकिस्तान ने भारत की कूटनीति का नरम रुख माना। इससे वहां की सेना और खुफिया एजेंसी उत्साहित हुईं। दूसरा, भारत सरकार के रुख में बदलाव केंद्र सरकार की इच्छा के बगैर हुआ, जिस लेकर जनता के सवालों पर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। असल में भारतीय रुख में बदलाव और प्रधानमंत्री के बयान के बाद सीमा पार से आतंकवादियों घुसपैठ की घटना बढ़ी है। चिंता का तीसरा कारण यह है कि भारत के बदले रुख से आतंकवाद और बढ़ेगा। पुणे और काबुल में दोहरे आतंकी हमले को इस तरह अंजाम दिया गया कि भारत अंदर से बाहर तक लहूलुहान हो। अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी घटाए बिना पाकिस्तान वहां अपना सैन्य और राजनीतिक प्रभाव नहीं बढ़ा सकता। इसके बगैर वह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की रणनीति पैसे लो और आगे बढ़ो को एक तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा सकता। अफगान समाज के लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष तबकों में भारत मजबूत भूमिका निभा रहा है। उसने वहां 1.4 अरब डालर का निवेश किया है। इसे अफगानिस्तान में अपना राजनीतिक हित साधने की कोशिश में लगे पाकिस्तान की कट्टरपंथी और चरमपंथी ताकतें अपने लिए खतरा समझती हैं। पुणे और काबुल हमले से यह साबित हुआ कि आतंकवादी ताकतें पाकिस्तानी फौज के काबू में हैं और वह उनका इस्तेमाल करने में सक्षम है। इसके अलावा, भारत के निर्णय को देखकर लगता है जैसे वह अमेरिका की अफ-पाक रणनीति की सहायता के लिए लिया गया हो। अमेरिका ने अफगान तालिबान से तालमेल बढ़ाने के सार्वजनिक संकेत देकर यह स्पष्ट किया है कि उसकी पाक सेना और खुफिया तंत्र पर निर्भरता बढ़ी है। अफगान तालिबान के साथ कामयाब बातचीत के लिए अमेरिका सबसे पहले तालिबान को कमजोर करना चाहता है। इसीलिए अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान के मारजाह में चल रही कार्रवाई में आक्रामकता दिख रही है। चूंकि अमेरिका अफगान तालिबान के कमांडरों पर दबाव बनाने और उन्हें वार्ता की मेज पर लाने के लिए पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसियों से सहायता की उम्मीद कर रहा है इसलिए उसने पाकिस्तान को खुश करने के लिए भारत को इस्लामाबाद के साथ वार्ता की मेज पर आने का मशविरा दिया। दुश्मन के साथ बेहतर राजनीतिक सौदेबाजी के लिए अमेरिका की यह शुरू से रणनीति रही है कि पहले दबाव बनाओ फिर बातचीत करो। भारत को पाकिस्तान के साथ वार्ता के लिए मनाने के बाद अमेरिका ने न सिर्फ मराजाह में आक्रामक रुख अख्तियार किया है, बल्कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की मदद से अफगान तालिबान के कई नेताओं को गिरफ्तार भी किया। इनमें मुल्ला अब्दुल गनी बारादर, अफगान तालिबान के कथित आपरेशन चीफ मुल्ला अब्दुल कबीर, तालिबान की सरकार में उप प्रधानमंत्री रह चुके मुल्ला अब्दुल सलाम और अफगानिस्तान के कुंदुंज प्रांत के छद्म गवर्नर रहे कथित तालिबानी नेता और बगलान प्रांत के मुल्ला मोहम्मद इत्यादि शामिल हैं। पर्दे के पीछे तयशुदा रणनीति के तहत इन मुल्लाओं की गिरफ्तारी पाकिस्तानी शहरों से हुई, जिनमें कराची और नौशेरा भी शामिल हैं। इससे पता चलता है कि अफगान तालिबान के नेता पाकिस्तान-अफगानिस्तान के सरहदी पहाड़ी इलाकों के बजाय पाकिस्तान के प्रमुख शहरों से अपना अभियान चला रहे हैं। चिंता की पांचवी वजह है पाकिस्तान की मौजूदा हालात का लाभ उठाने की जगह भारत अमेरिका का सहारा ले रहा है। भारत अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत के प्रयोग के प्रति भी अनिच्छुक है। पाकिस्तान के साथ वार्ता शुरू करने से पता चलता है कि वह अपने कूटनीतिक दांव का इस्तेमाल भी नहीं करना चाहता। पाकिस्तान के विरुद्ध भारत न सिर्फ कूटनीतिक कवायद से बच रहा है, बल्कि नतीजे के लिए बाहरी ताकतों की ओर देख रहा है। इनमें अमेरिका से लेकर सऊदी अरब तक शामिल हैं। बाहरी ताकतों के भरोसे रहना भारत के लिए जोखिम भरा रहा है। जहां तक अमेरिका की दक्षिण एशिया संबंधी नीति का सवाल है तो वह शुरू से ही संकीर्ण रही है। अपने संकीर्ण राजनीति हितों के लिए ओबामा प्रशासन पाकिस्तान को घातक हथियार और उदार सहायता मुहैया कराता रहेगा। सऊदी अरब लंबे समय से जिहादी गुटों को आर्थिक सहायता देता रहा है। 9/11 के आतंकी हमले के बाद भी वह लश्कर-ए-तैयबा सहित अन्य आतंकी समूहों को आर्थिक सहायता देता रहा, जबकि उसने उनके आर्थिक सहायता के स्रोतों को रोकने का वादा किया था। भारत सरकार देश की जनता की आंखों पर यह कहकर पर्दा डाल रही है कि यह बातचीत पूरी तरह आतंकवाद पर केंद्रित है, जबकि हकीकत यह है कि अन्य मुद्दों के अलावा इसमें कश्मीर भी शामिल है। इस वार्ता से पहले भारत सरकार ने हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी से पाकिस्तानी विदेश सचिव की मुलाकात की व्यवस्था की थी। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री ने संसद में इस तथ्य पर रोशनी डालने से मना कर दिया कि पिछले सालों में सरकार ने पिछले दरवाजे से कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ क्या बातचीत की है। उन्होंने राजग सरकार में विदेश मंत्री रह चुके जसवंत सिंह की अमेरिकी विदेश उपसचिव स्ट्रोब टालबोट की गुप्त बातचीत का हवाला दिया। क्या दो गलतियों को आपस में मिला देने से सही हो जाती हैं? एक और चिंताजनक पहलू यह है कि भारत पाकिस्तान के वास्तविक सत्ता केंद्र यानी फौजी नेतृत्व से बातचीत नहीं कर रहा है। इसकी जगह वह पीपीपी सरकार से बात कर रहा है, जो न तो आतंकी हमले के लिए जिम्मेदार है और न उसमें उन्हें रोकने का माद्दा है। भारत क्रमिक रूप से पाकिस्तान सरकार के साथ बातचीत की प्रक्रिया बढ़ा रहा है। ऐसा करके वह पाक फौज को आतंकवाद जारी रखने का अवसर दे रहा है। अंतिम कारण यह है कि जो पाकिस्तान चरमपंथ और आतंकवाद के वैश्विक निर्यात के लिए कुख्यात है उसके साथ वार्ता के लिए जबरन भारत को विवश करने की कोशिश हो रही है। दरअसल अमेरिका से ज्यादा खुद भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष पाक के बराबर रखने की भूल कर रहा है।

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