भारत में परमाणु ऊर्जा संयंत्र बनाने के लिए दौड़ की शुरुआत हो चुकी है। इस रेस में रूस काफी आगे है। फ्रांस की कंपनी अरेवा दूसरे नंबर पर है। अमेरिकी-जापानी उपक्रम (जीई-हिताची और तोशिबा-वेस्टिंगहाउस) अब भी रेस में काफी पीछे हैं। बुश-मनमोहन के बीच हुए इस समझौते से सबसे अधिक लाभ रूसी कंपनी एटमस्ट्रॉयक्स्पोर्ट को होने जा रहा है, जबकि अमेरिकी कंपनियां सबसे पीछे हैं। नए परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए जगह का चयन, बोर्ड में राज्य सरकारों को शामिल करने और पर्यावरण एवं सुरक्षा संबंधी मंजूरी पाने में सालों लग सकते हैं। इसके अलावा परमाणु विरोधी एनजीओ की याचिका से भी इसमें देर संभव है। रूस इस रेस में काफी आगे निकल चुका है क्योंकि वह पुराने करार के तहत तमिलनाडु के कुडानकुलम में दो ऊर्जा संयंत्र बना रहा है। इस संयंत्र को भी तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन अब उसका रास्ता साफ है। इस संयंत्र में 1,000 मेगावाट के आठ रिएक्टर लगाए जा सकते हैं। वास्तव में भारत-रूस कुडानकुलम में रिएक्टर तीन और चार के मसले पर भी समझौता कर चुके हैं और इन पर भारत-अमेरिका परमाणु करार एवं संबंधित समझौते पर अमल के बाद काम शुरू होने की उम्मीद है। हाल में ही रूस सरकार ने रिएक्टर तीन एवं चार से संबंधित मसले पर हरी झंडी दे दी है, इसलिए इस काम में किसी तरह की रुकावट की आशंका नहीं है।निजी क्षेत्र की कंपनियां भारत को तब तक उपकरण की आपूर्ति नहीं कर सकतीं, जब तक न्यूक्लियर लायबिलिटी एक्ट लागू नहीं हो जाता। इस एक्ट के लागू होने के बाद किसी दुर्घटना की स्थिति में विदेशी आपूर्तिकर्ता की जिम्मेदारी सीमित हो जाएगी। इस तरह का बिल तैयार किया जा रहा है और उम्मीद है कि कानून मंत्रालय इसे जल्द पेश कर सकता है। केंद्र के आगामी बजट सत्र में कई बिल पारित किए जाने हैं, इसलिए इस बिल पर संशय बरकरार है। इस देरी से फ्रांस, जापान और अमेरिका के साथ करार पर असर पड़ सकता है। रूस की कंपनी पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि वह सरकारी कंपनी है। भारतीय समिति ने परमाणु पार्क के लिए पांच नई जगह का चयन किया है जिसमें से प्रत्येक में 1,000-1,650 मेगावाट के छह-आठ रिएक्टर होंगे। ये साइट महाराष्ट्र के जैतपुर, पश्चिम बंगाल के हरिपुर, उड़ीसा के पाटीसोनापुर, गुजरात के मिठिरविर्दी और आंध्र प्रदेश के कोवाड़ी में स्थित हैं। इनमें से जैतपुर का चयन कर लिया गया है और इसे फ्रांस की अरेवा को सौंप दिया गया है। इससे रेस में अरेवा दूसरे स्थान पर है। फ्रांस की संसद से हालांकि जैतपुर के लिए द्विपक्षीय समझौते पर मुहर नहीं लगी है, लेकिन इसकी उम्मीद बनी है। जीई-हिताची और तोशिबा-वेस्टिंगहाउस के लिए अब तक किसी साइट का चयन नहीं किया गया है। पश्चिम बंगाल में हरिपुर के लिए जीई-हिताची पर बात चली थी, लेकिन यह राजनीतिक रूप से काफी मुश्किल होगा। वाम मोचेर् की सरकार किसी अमेरिकी कंपनी को परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने की इजाजत देने के लिए राजी नहीं होगी। इसके अलावा ममता बनर्जी भी प्लांट का विरोध कर सकती हैं।जापान को हालांकि भारत-अमेरिका परमाणु करार रास नहीं आया, लेकिन उसने अमेरिकी दबाव को समझते हुए इस पर चुप रहना ही बेहतर समझा। जापानी राजनेताओं और एनजीओ ने भारत एवं पाकिस्तान जैसे देशों को परमाणु उपकरण निर्यात करने का विरोध किया। इस वजह से जापान से निर्यात के लिए लाइसेंस हासिल करना भी आसान नहीं है। यूरेनियम ईंधन की आपूर्ति में भी रूस और फ्रांस आगे हैं। फ्रांस से करीब 300 टन यूरेनियम भारत आ चुका है और रूस ने 30 टन की पहली खेप भारत भेज दी है। भारत कजाकिस्तान से भी 2,000 टन यूरेनियम के लिए बातचीत कर रहा है, इसमें अमेरिका और जापान कहीं भी शामिल नहीं हैं।
लोकसभा में विपक्ष के भारी विरोध की आशंका के कारण परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे के प्रावधान से संबंधित महत्वपूर्ण जनदायित्व विधेयक नहीं लाया जा सका। विधेयक पर सरकार को संसद में भाजपा और वाम दलों का सबसे तीखा विरोध झेलने का डर था।
लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार ने संसद में जानकारी देते हुए कहा कि परमाणु ऊर्जा राज्य मंत्री पृथ्वीराज चौहान ने उनसे कहा है कि सरकार सदन में यह बिल आज पेश नहीं करना चाहती है।
गौरतलब है कि इस बारे में माकपा नेता सीताराम येचुरी पहले ही कह चुके हैं कि इस बिल को पेश करने के बाद स्थाई समिति के पास भेजा जाना चाहिए। भाजपा को भी इस पर कई आपत्तियां हैं। सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा सदन में इस मसले पर सरकार को घेरने की पूरी तैयार कर चुके हैं। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज से और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने अरुण जेटली से इस मसले पर बात की है। उधर सरकार चाहती है कि यह विधेयक स्थाई समिति के पास न जाकर इसी सत्र में पारित करा लिया जाए।
भारत-अमेरिकी परमाणु करार के कार्यान्वयन में इस विधेयक की अहम भूमिका है। इस विधेयक के पारित होने के बाद ही अमेरिकी कंपनियां भारत में अपना परमाणु व्यापार शुरू कर सकती हैं। इसलिए अमेरिका चाहता है कि यह बिल शीघ्र पारित हो जाए। सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज बिल-2010 को पिछले साल नवंबर में कैबिनेट ने मंजूरी दे दी थी। इस बिल में हरेक परमाणु दुर्घटना की स्थिति में परमाणु संयंत्र के संचालक की ओर से अधिकतम 300 करोड़ रुपए तक की राशि की जिम्मेदारी लेने की बात है। हालांकि ऐसे प्रावधान भी किए गए हैं, जिसके आधार सरकार इस राशि में कमी या वृद्धि कर सकती है। देनदारी की सीमा तय करने से सीमा के ऊपर भुगतान की जाने वाली रकम का बोझ भारतीय करदाताओं पर पड़ेगा। जबकि अमेरिकी कंपनियां मुक्त घूमेंगी.
उधर भारत सरकार और अमेरिका सरकार के वार्ताकार पिछले दिनों रिप्रोसेसिंग मसले पर मतभेद सुलझाने की कोशिश में लगे हुए थे, ताकि अगले महीने 11-12 अप्रैल को परमाणु शिखर सम्मेलन से पहले इस मसले पर सहमति बन जाए। सूत्रों का कहना है कि इस मसले पर दोनों देशों के वार्ताकारों ने एक प्रारूप तो तैयार किया है, लेकिन अभी इस पर राजनीतिक नेतृत्व की मंजूरी बाकी है। रिप्रोसेसिंग के मसले पर भारत का मानना है कि द्विपक्षीय 123 समझौते में उसने जो वादा किया है, उसी के अनुरूप वह अमेरिका के साथ समझौता करेगा। वहीं अमेरिका अप्रसार के मसले पर जोर दे रहा है।
Monday, March 15, 2010
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