Wednesday, March 10, 2010
परमाणु सहयोग समझौता
अमेरिका के साथ हुआ चर्चित परमाणु सहयोग समझौता 2008 में लागू हुआ। इस प्रस्ताव के पुनरीक्षण के बाद अमेरिकी कांग्रेस ने भारतीय संसद में मंजूरी के लिए बुश प्रशासन को अनुमति दी थी, मगर इस रवायत के उलट मनमोहन सिंह सरकार संसद के दोनों सदनों को दरकिनार करके एक ऐसा कानून पारित कराना चाहती है, जिससे भविष्य में भोपाल गैस जैसी दुर्घटना होने पर इसकी जिम्मेदारी विदेशी कंपनियों के बजाय सरकार अपने ऊपर ले ले। सिविल लाइबेलिटी फॉर न्युक्लियर डैमेज बिल में ऐसी मांग अमेरिका की उन प्राइवेट कंपनियों द्वारा की जा रही है जो फ्रांस और रूसी कंपनियों के मुकाबले सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां नहीं हैं। ये अमेरिकी कंपनियां यह भी चाहती हैं कि किसी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष क्षति होने की सूरत में की जाने वाली भरपाई में भारत सरकार सब्सिडी दे। गंभीर दुर्घटनाओं के बाद के वित्तीय परिणामों के लिए इन विदेशी कंपनियों ने इस बिल में भारत सरकार को ढाल बनाने की कोशिश की है। जिसके बाद प्राथमिक तौर पर किसी भी अनहोनी की जिम्मेदारी इन विदेशी कंपनियों की जगह सरकार की होगी। प्रावधान के मुताबिक ये कंपनियां रेडियोधर्मी तत्वों से होने वाले गंभीर नतीजे की सूरत में 2250 करोड़ और छोटी दुर्घटना होने पर महज 300 करोड़ रुपये बतौर मुआवजा देने को बाध्य होंगी। गौरतलब है कि भारत में कारोबार करने के लिए इन विदेशी कंपनियों को भारतीय करदाताओं के पैसे से सब्सिडी दी जाएगी और इन पैसों से प्रत्येक विदेशी कंपनी कई करोड़ डालर कमाई करेगी, फिर भी भारत सरकार इस विशेष अनुबंध पर सहमत हो गई है। खास तौर पर अमेरिकी, फ्रांसीसी और रूसी कंपनियों के लिए जो एक या दो संयंत्र लगाने जा रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्येक कंपनी भारत से अरबों डालर कमाने के लिए मुंह बाए खड़ी है, जो किसी तरह की अनहोनी की सूरत में महज कुछ रुपये जुर्माना चुकाकर बरी हो जाएंगी। आश्चर्यजनक बात यह है कि भोपाल दुर्घटना के कटु अनुभवों के बावजूद भारत सरकार करदाताओं की गाढ़ी कमाई के पैसे से सब्सिडी देकर इन विदेशी कंपनियों को प्रश्रय देना चाहती है। सवाल यह है कि देशहित को ताक पर रखकर आखिर क्यों सरकार इन कंपनियों की वित्तीय देनदारी अपने सिर लेना चाहती है? क्यों सरकार इन विदेशी कंपनियों को खुले बाजार की प्रतिस्पद्र्धा से बचाने के लिए आगे आ रही है? इतना ही नहीं इन विदेशी कंपनियों के निर्बाध कारोबार के लिए इनकी हर शर्त मानकर हमारी सरकार बेहद महंगे दरों पर बिजली खरीदेगी और अपनी ओर से सब्सिडी देगी। परमाणु संयंत्र की स्थापना के लिए सरकार ने खास तौर पर अमेरिकी, फ्रांसीसी और रूसी कंपनियों के लिए स्थान चिन्हित करके जमीन आरक्षित कर दिया है। परमाणु करार के बाद अमेरिका को खुश करने के लिए भारत सरकार ने अंतरराष्ट्रीय बाजार की कड़ी प्रतिस्पद्र्धा और पारदर्शिता को दरकिनार करके अरबों डालर के हथियार खरीदने के लिए एक करार पर दस्तखत किया है। प्राइस-एंडरसन एक्ट के मुताबिक अमेरिका में किसी तरह की परमाणु दुर्घटना होने पर इन कंपनियों के सिर पर भारी जुर्माने की तलवार लटकती रहती है, मगर भारत में इन कंपनियों के संयंत्र में ऐसी दुर्घटना होने पर वित्तीय बोझ अपने सिर लेकर हमारी सरकार इन कंपनियों को दोहरा लाभ पहुंचाना चाहती है। प्राइस-एंडरसन लाइबिलिटी सिस्टम के मुताबिक किसी भी तरह की परमाणु दुर्घटना होने पर परमाणु संयंत्र चलाने वाली कंपनी पर बीमा सहित अन्य देनदारी लगभग 1050 करोड़ रुपये की बनती है। ऐसी अनहोनी के बाद जब इन कंपनियों पर जब 1050 करोड़ की देनदारी बनती है तभी अमेरिकी सरकार उसमें सहयोग करती है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक इन कंपनियों के साथ भारत का करार असंगत है। मिसाल के तौर पर जापान के साथ तय करार के मुताबिक दुर्घटना होने पर उनकी देनदारी 1.33 अरब डालर की होगी। ओईसीडी के पेरिस समझौते के मुताबिक देनदारी 1.5 अरब यूरो यानी कंपनी संचालक के कुल पचास फीसदी शेयर के बराबर होगी। अमेरिका में मौजूद 436 परमाणु रिएक्टरों में से कोई भी किसी अंतरराष्ट्रीय संधि से नहीं बंधा है। चीन, जापान, अमेरिका किसी पर इस तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं है। ऐसे में भारत सरकार का यह फैसला बेहद अजीबोगरीब और शर्मनाक है कि वह परमाणु दुर्घटना की जिम्मेदारी अपने सिर पर लेगी और ये विदेशी कंपनियां मनचाहे तरीके से मोटा मुनाफा कमाने के लिए आजाद होंगी।
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