महिला आरक्षण बिल राज्यसभा में पारित हो गया। कहा जा रहा है कि यह देश के सबसे बड़े और सर्वाधिक दमित अल्पसंख्यक वर्ग के सशक्तिकरण की दिशा में पहला कदम है। आबादी के करीब आधे हिस्से को सशक्त किए बिना समग्र रूप में लोगों का सशक्तिकरण संभव नहीं है और राष्ट्र अपने विकास की पूर्ण सामर्थ्य हासिल नहीं कर सकता। भारत में परंपरागत रूप से आबादी के वंचित समूहों को आरक्षण के माध्यम से आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है। इसी तर्क के आधार पर प्रमुख राजनीतिक दल केंद्रीय और प्रादेशिक विधायिका में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने के लिए संविधान संशोधन करना चाहते हैं। इस पहल में उन्हें पंचायत राज संस्थानों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने से प्रोत्साहन मिला है। इसी कारण लाखों महिलाएं सार्वजनिक जीवन में भागीदारी करने लगी हैं। कुछ छोटी पार्टियां यह दलील दे रही हैं कि विधायिका में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण से अल्पसंख्यकों के हित प्रभावित होंगे और विधायिका में उनका प्रतिनिधित्व कम होगा। प्रमुख राजनीतिक पार्टियों का तर्क है कि यह भय निराधार है। हमारा इन दोनों पक्षों के तर्क-वितर्क पर विमर्श का कोई इरादा नहीं है किंतु कुछ विपक्षी दलों द्वारा राज्यसभा में संशोधन बिल रोकने के तरीके और इस पर संसद की प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करना जरूरी है। इस घटनाक्रम का पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर प्रभाव पड़ा है। राज्यसभा में विभिन्न दलों के करीब 190 सदस्य मौजूद थे फिर भी केवल सात सदस्य सदन के वेल में आकर बिल पेश करने से रोकने के लिए संसद की कार्रवाई में बाधा पहुंचाने में कामयाब हो गए। दोपहर बाद वे सभापति की मेज तक पहुंच गए और मेज पर रखे दस्तावेजों की प्रतियां फाड़ डाली। 9 मार्च की सुबह सभापति ने इन सात सदस्यों को शेष सत्र के लिए निलंबित कर दिया। पिछले बीस सालों में यह पहली बार हुआ। उद्दंड सदस्यों ने सदन को छोड़ने से इनकार कर दिया तो मार्शलों को उन्हें उठाकर बाहर निकालना पड़ा। महिला आरक्षण के समर्थन में बिल 186-1 मतों से पारित कर दिया गया। निलंबित सदस्यों और उनकी पार्टियों को अपने व्यवहार पर कोई अफसोस नहीं था। अगले दिन न केवल पार्टियों बल्कि निलंबित सदस्यों ने भी अनुशासनात्मक कार्रवाई का विरोध किया बल्कि अन्य दलों ने और यहां तक कि एक केंद्रीय मंत्री ने भी निलंबन की आलोचना की। टीवी पर इन सब घटनाओं को देखने वाले आम आदमी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा? पहला तो यह कि ऐसे कई सांसद हैं जो संसद के ही नियमों का सम्मान नहीं करते। न ही लोकतांत्रिक मूल्यों में उनकी आस्था है। वे इस पर जोर देते हैं कि भारी बहुमत से अलग विचार होने के बावजूद उनकी बात मानी जानी चाहिए। वे तार्किकता में विश्वास नहीं रखते, न ही दूसरों की बात सुनते हैं। यहां तक कि सदन के भीतर हिंसा तक करने में नहीं हिचकते। स्वाभाविक है, इस तरह के व्यवहार और मूल्यों वाले लोग नहीं चाहते कि सबसे बड़े और दमित अल्पसंख्यक वर्ग, महिलाओं का सशक्तिकरण हो। दूसरे, उन बहुसंख्यक सांसदों के बारे में क्या कहा जाए जो लोकतंत्र के किले में चुपचाप बैठे हुए लोकतांत्रिक मूल्यों पर आघात देखते रहते हैं। क्या यही लोग लोगों का सशक्तिकरण और उनके अधिकारों की सुरक्षा करने जा रहे हैं! जब भारी भरकम बहुमत हिंसक अल्पसंख्यकों के छोटे से समूह की हेकड़ी के आगे समर्पण कर देता है तो इससे लगता है कि मुट्ठीभर उपद्रवियों द्वारा फासीवादी तरीकों से सदन को बाधित करने में पूर्व व वर्तमान मंत्रियों सहित काफी अधिक सदस्यों का समर्थन हासिल है। इससे यह सवाल उठता है कि अगर ये सदस्य सदन के भीतर ही कानून-व्यवस्था का मखौल उड़ाते हैं तो उनका अपने निर्वाचन क्षेत्र में क्या व्यवहार होता होगा? सांसद शेखी बघारते हैं कि वे पूरी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और संविधान के मूल्यों में विश्वास रखते हैं, जबकि बहुसंख्यक वोट उनके खिलाफ होती हैं। धनबल और बाहुबल से चुने जाने के बाद वे आम आदमी पर ज्यादती करते हैं। यही वे संसद में भी दोहराते हैं। जबकि आम आदमी इस तरह की लोकतंत्र विरोधी फासिस्टों की ज्यादतियों के सामने मजबूर होता है, किंतु संसद सदस्यों से इस तरह के दबाव में आने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि सदन में कानून व्यवस्था सुनिश्चित रखने के लिए उनके पास समस्त शक्तियां होती हैं। जब तक भारतीय संसद अनुशासन कायम रखने में सक्षम नहीं होती, तब तक वह जनता का सशक्तिकरण नहीं कर सकती। आज के हालात में संसद में अधिकांश सदस्य कानून सम्मत कार्यवाही सुनिश्चित करने में असमर्थ हैं। पहले उन्हें खुद को सशक्त करने दो।
महिला आरक्षण विधेयक का राज्यसभा में पारित होना अपने आपमें मील का एक पत्थर है, लेकिन यह जिस तरह पारित हुआ और फिर विवादों में घिर गया उससे इसकी महत्ता घटी है। यह सर्वविदित है कि देश में महिलाओं का स्तर पुरुषों से नीचे है। संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व आठ-नौ प्रतिशत के आसपास है। यह प्रतिशत कुछ पड़ोसी देशों से भी कम है। ज्यादातर दलों और विशेष रूप से कांग्रेस, भाजपा और वामदलों का यह मानना है कि यदि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो इससे सामाजिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन आएगा। इस मान्यता से असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन यह तथ्य चकित करता है कि महिला आरक्षण विधेयक 14 वर्षो बाद संसद के उच्च सदन से पारित हो सका और वह भी तब जब सदन में मार्शल बुलाने पड़े। सपा और राजद के सांसदों ने विधेयक को पारित होने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास किए, लेकिन वे असफल रहे। यह बात और है कि अब इन्हीं दलों की आपत्ति के चलते यह विधेयक लोकसभा में नहीं लाया जा सका। यह इन दोनों दलों की एक बड़ी राजनीतिक सफलता है। इन दलों का मानना है कि महिला आरक्षण विधेयक का मौजूदा स्वरूप दलित, पिछडे़ एवं अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं की अनदेखी करने वाला है। कुछ ऐसी ही बात भाजपा, कांग्रेस के अनेक सांसद भी अंदर ही अंदर कर रहे हैं। यदि यह तर्क उचित है कि इस विधेयक से मुस्लिम महिलाओं को कुछ भी लाभ मिलने वाला नहीं और इसी कारण सरकार इस विधेयक को लोकसभा में लाने से ठिठक गई तब फिर यह समझना कठिन है कि कांग्रेस और वामदलों को यह बात समय रहते समझ में क्यों नहीं आई? क्या कारण है कि अब लालू-मुलायम की आपत्ति को आधार बनाकर महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पेश करने का इरादा त्याग दिया गया? कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्तापक्ष ने इस विधेयक को राज्यसभा में पारित कराना अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था और इसीलिए सदन में मार्शल बुलाकर विधेयक का विरोध करने वाले सांसदों को बाहर किया गया? राज्यसभा से पारित विधेयक को लोकसभा में पेश करने के पहले उस पर विचार-विमर्श का निर्णय यह बताता है कि इतने महत्वपूर्ण मामले में अपेक्षित राजनीतिक परिपक्वता का परिचय नहीं दिया गया। अब स्थिति यह है कि जहां खुद कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को ठंडे बस्ते में डालती दिख रही है वहीं भाजपा में इस विधेयक को लेकर असंतोष बढ़ता जा रहा है। कुछ भाजपा सांसदों ने तो लोकसभा में व्हिप का उल्लंघन करने की धमकी दी है। उनकी मानें तो कुछ कांग्रेसी सांसद उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। सरकार के समक्ष एक संकट यह भी है कि आरक्षण के अंदर आरक्षण की लालू यादव-मुलायम सिंह-शरद यादव की मांग का समर्थन ममता बनर्जी भी कर रही हैं और मायावती भी। यह भी साफ है कि अब सरकार लोकसभा में राज्यसभा की तरह विधेयक पारित कराने का साहस नहीं जुटा पा रही। शायद सरकार को सपा और राजद के समर्थन वापस ले लेने का भय सता रहा है और वह बसपा पर भरोसा करने की स्थिति में नहीं। यह ठीक है कि राज्यसभा में हंगामे के बाद सरकार महिला आरक्षण विधेयक पर लालू यादव, मुलायम सिंह, शरद यादव के साथ-साथ अन्य दलों से बातचीत करने के लिए तैयार है, लेकिन आखिर यह काम पहले क्यों नहीं किया गया? आखिर यह क्या बात हुई कि राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक ले जाने के पहले तो विचार-विमर्श से इनकार किया गया और लोकसभा में ले जाने के पूर्व सर्वदलीय बैठक बुलाने की बात की जा रही है? इसमें संदेह नहीं कि भाजपा और वामदलों के साथ-साथ कांग्रेस यह साबित करना चाहती थी कि वह महिलाओं को विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उसे उस स्थिति का भान होना ही चाहिए था जो अब उसके समक्ष पैदा हो गई है। इस संकट के लिए कांग्रेस ही अधिक जिम्मेदार है, क्योंकि लालू और मुलायम तो पहले दिन से महिला आरक्षण के अंदर आरक्षण देने की मांग कर रहे थे। फिलहाल यह कहना कठिन है कि लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक कब आएगा, लेकिन इतना अवश्य है कि कांग्रेस ने महिलाओं के उत्थान को लेकर अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर दी। यदि यह विधेयक लोकसभा से पारित नहीं हो पाता तो उसके पास यह कहने का अधिकार होगा कि सपा और राजद के कारण सोनिया गांधी राजीव गांधी के सपने को पूरा नहीं कर पाई। महिला आरक्षण के मौजूदा स्वरूप से यह स्पष्ट है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बारी-बारी से बदलती रहेंगी। इस प्रावधान के चलते एक खतरा यह है कि एक बड़ी संख्या में सांसदों को अपना निर्वाचन क्षेत्र छोड़ना होगा। जिन सांसदों को महिला आरक्षण के कारण अगली बार चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिलेगा वे या तो अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास को लेकर उदासीन हो जाएंगे या फिर वहां से अपने परिवार की महिलाओं को प्रत्याशी बनाने की कोशिश करेंगे। इस पर आश्चर्य नहीं कि महिला आरक्षण का लाभ नेताओं की पत्नियां, बहुएं और बेटियां ही अधिक उठाएं। एक धारणा यह भी है कि महिला आरक्षण के चलते एक तिहाई महिलाएं तो लोकसभा और विधानसभाओं में पहुंचेंगी ही, आगे चलकर इनमें से कई महिलाएं गैर आरक्षित सीटों से भी चुनाव जीत सकती हैं। यदि ऐसा हुआ तो सदनों में महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या एक तिहाई से अधिक भी हो सकती है। ऐसा होने में कोई बुराई नहीं, क्योंकि महिलाओं की आबादी तो 50 प्रतिशत के आसपास है, लेकिन इस संभावना से पुरुष नेताओं का चिंतित होना स्वाभाविक है। ऐसा लगता है कि महिला आरक्षण के विरोध के पीछे एक कारण यह भी है। जो भी हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यदि महिला आरक्षण के समर्थक दल व्हिप जारी न करते तो राज्यसभा में दूसरी ही तस्वीर बनती। यह आवश्यक है कि महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में पेश करने के पहले लालू यादव, मुलायम सिंह की आपत्तियों को सुनने के साथ-साथ उन सवालों पर भी गौर किया जाए जो महिला आरक्षण विधेयक के मौजूदा स्वरूप को लेकर उठ रहे हैं। समाज का हित इसी में है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के कदम आम सहमति से उठाए जाएं। कुछ अन्य विकल्पों पर भी विचार किया जाना चाहिए जैसे चुनाव आयोग द्वारा यह निर्देशित किया जा सकता है कि राजनीतिक दल एक निश्चित प्रतिशत में महिलाओं को राज्यवार टिकट दें। यह भी समय की मांग है कि महिलाओं के सामाजिक उत्थान के प्रत्यक्ष प्रयास किए जाएं, क्योंकि भारतीय समाज अभी भी पुरुष प्रधान है। यहां न केवल बेटों की लालसा पहले जैसी है, बल्कि महिलाओं को अक्सर बराबरी का दर्जा देने से इनकार किया जाता है। ऐसे समाज में केवल राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ाने से अभीष्ट की प्राप्ति होने वाली नहीं। सामाजिक स्तर पर महिलाएं सशक्त हों, इसके लिए उनकी शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और सुरक्षा पर भी। अभी तो वे कोख तक में सुरक्षित नहीं हैं। बेहतर होगा कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए सभी का सहयोग लिया जाए और कम से कम इस मामले राजनीतिक हानि-लाभ हासिल करने की भावना से ऊपर उठा जाए।साभार - दैनिक जागरण
Sunday, March 14, 2010
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