केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम का यह कहना उल्लेखनीय है कि नक्सलवाद जिहादी आतंकवाद की तुलना में ज्यादा गंभीर समस्या है। इसका सीधा अर्थ है कि भारत एक साथ दो बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है, जिनमें एक सीमा पार से संचालित है और दूसरी सीमा के अंदर से। चिदंबरम ने नक्सलियों के इरादों का जिक्र करते हुए केंद्रीय गृहसचिव के इस कथन की पुष्टि भी की कि नक्सली सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं। गृहमंत्री ने नक्सलियों से निपटने का संकल्प लेते हुए उम्मीद जताई कि केंद्र सरकार के इस कार्यकाल के अंत तक नक्सलियों के कब्जे वाले इलाके मुक्त कराने में सफलता मिल जाएगी, लेकिन जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक चैन की सांस नहीं ली जा सकती। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि नक्सलवाद से ग्रस्त राज्य नक्सलियों के खिलाफ अभियान छेड़ने के मामले में कुल मिलाकर आनाकानी ही कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए तो अन्य राज्य नक्सलियों का मुकाबला करने के बजाय तरह-तरह के बहाने बना रहे हैं। पश्चिम बंगाल और बिहार आगामी विधानसभा चुनावों के चलते शिथिल हैं तो झारखंड सरकार वोट बैंक कमजोर होने से आशंकित है। इसके पहले नक्सलियों के खिलाफ अभियान इसलिए नहीं शुरू हो सका, क्योंकि झारखंड और महाराष्ट्र में चुनाव होने थे। उसके पहले लोकसभा चुनाव के कारण नक्सल विरोधी अभियान को विराम दे दिया गया था। क्या कोई यह सुनिश्चित करेगा कि अब नक्सलियों से निपटने से अधिक चुनावी लाभ-हानि को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी? आखिर चुनाव आवश्यक हैं या तख्ता पलट का सपना देख रहे नक्सलियों पर नियंत्रण? गृहमंत्री की मानें तो नक्सली देश के 200 जिलों में सक्रिय हैं और करीब 34 जिलों में उनकी तूती बोल रही है। यह खतरनाक स्थिति है। सवाल यह है कि नक्सलियों को इतना समर्थ क्यों होने दिया गया कि वे 34 जिलों में समानांतर सरकार चलाने की स्थिति में आ गए हैं? नि:संदेह यह रातों रात नहीं हुआ होगा। आखिर नक्सलियों के इतना ताकतवर होने देने की जवाबदेही किसकी है? आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें नक्सलियों को भी फलने-फूलने का मौका मिला? क्या यह मान लिया जाए कि राजनीतिक दलों के संरक्षण के बगैर नक्सली इतना निरंकुश हो गए? क्या नक्सलवादियों के खिलाफ बल प्रयोग करने से कन्नी काट रहे राजनीतिक दल तब चेतेंगे जब वे कुछ और जिलों में शासन करने में समर्थ हो जाएंगे? केंद्रीय गृहमंत्री ने एक बार फिर नक्सलियों से बातचीत की इच्छा जताई, लेकिन इसमें संदेह है कि वे वार्ता के इच्छुक हैं और उससे कुछ हासिल होगा। नक्सलियों को वार्ता का निमंत्रण देकर कुछ ऐसा संदेश दिया जा रहा है जैसे वे आदिवासियों के प्रतिनिधि हों। आखिर सरकार सीधे आदिवासियों से बात क्यों नहीं करती? नक्सलियों से वार्ता के जरिये कुछ हासिल होने की उम्मीद इसलिए नहीं है, क्योंकि वे वैचारिक रूप से उतने ही कट्टर हैं जितने कि जेहादी आतंकी। यह ठीक है कि चिंदबरम ने अगले तीन-चार वर्षो में नक्सलियों पर काबू पाने का भरोसा जताया, लेकिन आखिर जेहादी आतंकवाद पर लगाम कब लगेगी? क्या कारण है कि जेहादी आतंकवाद से निपटने के मामले में वैसा कोई संकल्प नहीं लिया जा रहा जैसा नक्सलवाद के मामले में लिया गया?
इसमें कोई शक नहीं कि नक्सलवाद अब देश के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक नक्सली हिंसा को लेकर चिंता जता चुके हैं। ऐसे में देश के गृह सचिव जीके पिल्लई का यह बयान कि माओवादियों का मकसद 2050 तक भारतीय लोकतंत्र को उखाड़ फेंकना है क्या साबित करता है? भारत में वामपंथी उग्रवाद की स्थिति विषय पर सेमिनार को संबोधित करते हुए गृहसचिव ने यह भी कहा कि अगर मौजूदा समय में माओवादी चाहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के कई सेक्टरों को घुटने के बल बैठा सकते हैं, मगर वे फिलहाल ऐसा नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि इससे शासन उन पर कड़ी कार्रवाई करेगा। क्या इस तरह के बयान से नक्सलियों के नापाक मंसूबों को और शह नहीं मिलेगी? क्या गृहसचिव नक्सलियों का महिमा मंडन नहीं कर रहे हैं? यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस तरह के बयानों का क्या औचित्य है? जीके पिल्लई ने सेमिनार में नक्सलियों का जिस तरह से महिमा मंडन किया उसका असर तुरंत दिखाई दिया और अगले ही दिन माओवादी नेता कोटेश्र्वर राव उर्फ किशनजी का बयान आ गया कि हम 2050 से पहले ही भारत में तख्ता पलटकर रख देंगे। देश के कर्णधारों के बीच इन दिनों यह एक नया रिवाज बनता जा रहा है कि विदेश नीति से लेकर सुरक्षा नीति पर कोई भी कुछ भी बयान जारी कर सकता है। कोई ट्विटर पर विदेश नीति जैसे संवेदनशील विषयों पर चहकता दिखाई देगा तो कोई देश की सुरक्षा जैसे अहम मसले पर किसी सेमिनार में बौद्धिक उछलकूद करेगा। सरकार में अहम पदों पर बैठे हुए लोगों को देश से जुड़े किसी अहम मसले पर अपनी बात सोच-समझकर ही रखनी चाहिए। नक्सली हिंसा को लेकर पिछले कई बरसों से सरकार रणनीति पर रणनीति बनाए जा रही है और इसको लेकर समय-समय पर राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर गृहसचिवों और पुलिस महानिदेशकों तक के सम्मेलन होते रहते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में माओवादियों के हमले में 17 पुलिसकर्मियों के मारे जाने के कुछ समय बाद ही माओवादियों के खिलाफ नई रणनीति की घोषणा हो जाती है, जिसमें कहा जाता है कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान की कमान राज्य की पुलिस संभालेगी, जबकि केंद्रीय पुलिस सिर्फ सहायक होगी। माओवादियों के खिलाफ भावी अभियानों में विशेष कमांडो दस्तों के साथ लगभग 70 हजार केंद्रीय अर्धसैनिक बल तैनात करने की बात भी की जाती है। इन अर्द्धसैनिक बलों के साथ सैनिक और वायुसेना के सशस्त्र हेलिकाप्टर उपलब्ध कराने का भी जिक्र होता है। कभी केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से संकेत आते हैं कि माओवादियों के ठिकानों पर चालक रहित विमान से हमले किए जाएंगे तो कभी इस बात को खारिज कर दिया जाता है। दरअसल नक्सल समस्या को जड़ से मिटाने के लिए अब तक केंद्र और राज्य सरकारों ने कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। नक्सलवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा आते हैं और इन राज्यों के कई इलाकों में हालात वाकई बदतर हैं। लगभग तीन दर्जन जिलों में उनकी समानांतर सरकार चल रही है। आर्थिक विकास दर को दहाई के आंकड़े पर लाने की बात तो की जाती है लेकिन इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि इसका लाभ गरीब और वंचित तबके को नहीं मिल रहा है। मनरेगा जैसी योजनाओं के क्रियान्वयन में होने वाले भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए सरकार को खुद को तैयार करना होगा। आने वाले बरसों में अगर हम गरीबी को जड़ से मिटा दें और विकास की रोशनी को केवल महानगरों तक सीमित न रखकर देश के कोने-कोने तक पहुंचा दें तो कोई भी नक्सलवाद या आतंकवाद देश के लोगों को अपने फायदे के लिए हिंसा की राह पर नहीं मोड़ सकेगा।-साभार दैनिक जागरण
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