Tuesday, May 4, 2010

यूरोपियन संघ (यूरोपियन यूनियन)

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यूरोपियन संघ (यूरोपियन यूनियन) मुख्यत: यूरोप में स्थित 27 देशों का एक राजनैतिक एवं एवं आर्थिक मंच है जिनमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रो पर लागू होती है। इसका अभ्युदय 1957 में रोम की संधि द्वारा यूरोपिय आर्थिक परिषद के माध्यम से छह यूरोपिय देशों की आर्थिक भागीदारी से हुआ था। तब से इसमें सदस्य देशों की संख्या में लगातार बढोत्तरी होती रही और इसकी नीतियों में बहुत से परिवर्तन भी शामिल किये गये। 1993 मेंमास्त्रिख संधि द्वारा इसके आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गयी।
यूरोपिय संघ सदस्य राष्ट्रों को एकल बाजार के रूप में मान्यता देता है एवं इसके कानून सभी सदस्य राष्ट्रों पर लागू होता है जो सदस्य राष्ट्र के नागरिकों की चार तरह की स्वतंत्रताएँ सुनिश्चित करता है:- लोगों, सामान, सेवाएँ एवं पूँजी का स्वतंत्र आदान-प्रदान. संघ सभी सदस्य राष्ट्रों के लिए एक तरह की व्यापार,  क्षेत्रीय विकास की नीति पर अमल करता है . 1999 में यूरोपिय संघ ने साझी मुद्रा यूरो की शुरुआत की जिसे पंद्रह सदस्य देशों ने अपनाया। संघ ने साझी विदेश, स्रुरक्षा, न्याय नीति की भी घोषणा की। सदस्य राष्ट्रों के बीच श्लेगन संधि के तहत पासपोर्ट नियंत्रण भी समाप्त कर दिया गया। यूरोपिय संघ में लगभग 500 मिलियन नागरिक हैं,एवं यह विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 31% योगदानकर्ता है .

यूरोपीय संघ समूह आठ संयुक्त राष्ट्रसंघ एवं विश्व व्यापार संगठन में अपने सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करता है। यूरोपीय संघ के 21 देश नाटो के भी सदस्य हैं। यूरोपीय संघ के महत्वपूर्ण संस्थानों में यूरोपियन कमीशन, यूरोपीय संसद, यूरोपीय संघ परिषद, यूरोपीय न्यायलय एवं यूरोपियन सेंट्रल बैंक इत्यादि शामिल हैं। यूरोपीय संघ के नागरिक हर पाँच वर्ष में अपनी संसदीय व्यवस्था के सदस्यों को चुनती है

पश्चिम यूरोप के चार राष्ट्रों ने संघ की सदस्यता न लेकर आंशिक रूप से संघ की आर्थिक व्यवस्था में शामिल हैं जिनमें आइसलैंड, Liechtenstein एवं नार्वे प्रमुख हैं, एवं स्वीटजरलैंड ने भी द्वीपक्षीय समझौते के तहत ऐसा स्वीकार किया है।

Sunday, May 2, 2010

सहकारी बैंकों को मजबूत बनाने की मुहिम

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 देश के सहकारी बैंकों को मजबूत बनाने की मुहिम एक बार फिर पस्त होती नजर आ रही है। केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक की तरफ से राज्य स्तरीय सहकारी बैंकों को सुधारने की इस मुहिम में राज्य ही रोड़े अटका रहे हैं। कई राज्य सरकारें स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दबाव के चलते अपने सहकारी सोसायटी कानून में बदलाव नहीं कर रही हैं। इससे केंद्र सरकार की तरफ से दी गई हजारों करोड़ रुपये की राशि का इस्तेमाल भी नहीं हो पा रहा है। आरबीआई के सूत्रों के मुताबिक तीन वर्षो तक समझाने-बुझाने के बाद 25 राज्यों ने अपने सहकारी सोसायटी कानून में बदलाव करने का समझौता आरबीआई से किया है। मगर दो-तीन वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक केवल 14 राज्यों ने ही इन कानून में संशोधन किए हैं। आरबीआई और राज्यों के बीच इस बारे में जो समझौता हुआ है उसके मुताबिक राज्य के सहकारी कानून में बदलाव के बाद ही उन्हें केंद्र की वित्तीय मदद मिलेगी। इस वित्तीय मदद से राज्य सहकारी बैंकों का इक्विटी आधार दुरुस्त करेंगे, उनके लिए ढांचागत सुविधाएं खड़ी करेंगे और इन बैंकों में पेशवर व योग्य अधिकारियों की नियुक्ति करेंगे। सूत्रों के मुताबिक मौजूदा कानून की वजह से राज्यों के सहकारी बैंकों पर बड़ी राजनीतिक हस्तियों और रसूख वालों का कब्जा है। इनके हाथ में राज्य स्तरीय सहकारी बैंकों में नियुक्ति करने, कर्ज दिलाने, निवेश फैसले करने जैसे अधिकार होते हैं। अगर कानून में संशोधन हो जाता है तो सहकारी बैंकों पर इनका कब्जा खत्म हो जाएगा। यही कारण है कि राजनीतिक तौर पर सहकारी कानून में संशोधन के प्रयास को लंबित किया जा रहा है। इससे सहकारी बैंकों में सुधार की पूरी कोशिश ही पस्त हुई जा रही है। सूत्रों के मुताबिक 25 राज्यों के साथ समझौता के बाद केंद्र सरकार ने नाबार्ड को 13,596 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए हैं। इस राशि को राज्यों को सहकारी कानून में संशोधन के एवज में दिए जाने हैं। अभी तक इस राशि में से केवल 7,561.79 करोड़ रुपये ही इस्तेमाल किए गए हैं। इससे 12 राज्यों में 41,295 सहकारी बैंकों का पुनर्पूजीकरण भी किया गया है। ये आंकड़े साफ करते हैं कि जिन राज्यों ने वादे के मुताबिक सहकारी कानून में संशोधन किए हैं उनके सहकारी बैंकों को फायदा हो रहा है। केंद्र सरकार ने राज्यस्तरीय सहकारी बैंकों को सुधारने के लिए इस पैकेज का ऐलान प्रो. वैद्यनाथन कार्यदल की सिफारिशों के आधार पर किया था। दरअसल, आरबीआई धीरे-धीरे सभी सहकारी बैंकों पर वाणिज्यिक बैंकों जैसे बैंकिंग नियम लागू करना चाहता है। इसके लिए राज्यों के मौजूदा सहकारी कानून में संशोधन होना बेहद जरूरी है

परमाणु दायित्व विधेयक

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परमाणु दायित्व विधेयक पर सरकार और विपक्ष में गतिरोध के बीच देश केपरमाणु प्रतिष्ठान ने बुधवार को इस विधेयक का समर्थन किया और कहा कि इस प्रणाली को लेकर काफी गलतफहमियां हैं।
परमाणु संबंधी दुर्घटनाओं में क्षतिपूर्ति के लिए एक कानून लागू करने पर जोर देते हुएपरमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष श्रीकुमार बनर्जी ने कहा कि न तो भारतीय पर्यावरण संरक्षण जनदायित्व बीमा अधिनियम, 1991 और ना ही भारतीय परमाणु ऊर्जाअधिनियम में संघर्ष या रेडियोधर्मिता के कारण हुए नुकसान की भरपाई के लिहाज से कोई प्रावधान किया गया है।
उन्होंने कहा कि इसलिए वर्तमान संदर्भ में यह विधेयक महत्वपूर्ण दिखाई देता है।
बनर्जी ने कहा कि वर्तमान में और निकट भविष्य में सरकारी स्वामित्व वाला भारतीयपरमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड [एनपीसीआईएल] ही केवल परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का संचालक होगा।
विपक्ष के विरोध के बाद सरकार ने सोमवार को विधेयक पेश नहीं करने का फैसला किया था। बनर्जी ने कहा कि भारत में कोई कानून नहीं है जो परमाणु उद्योग द्वारा हुए नुकसान की भरपाई के लिए दायित्व तय करता हो। सरकार बहुत सावधानी पूर्वक अध्ययन के बाद विधेयक पेश करना चाहती है लेकिन दुर्भाग्य से सांसदों में इसे लेकर काफी गलतफहमियां हैं, जिनमें सुधार की जरूरत है।''
सरकार विधेयक के लिए कोशिश कर रही है, जिसकी पृष्ठभूमि में बनर्जी का बयान आया है।
देश के शीर्ष नेताओं के दृष्टिकोण का समर्थन एईसी के दो पूर्व अध्यक्षों अनिल काकोडकर और एम आर श्रीनिवासन ने भी किया है।
बनर्जी ने कहा कि परमाणु ऊर्जा विभाग विधेयक पर एक दशक से अधिक समय से कानूनी विशेषज्ञों और केंद्र के साथ काम कर रहा है।
उन्होंने कहा कि परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को संचालित कर रहे 30 देशों में से भारत और पाकिस्तान को छोड़कर शेष 28 में इस तरह का विधेयक है।
उन्होंने कहा कि यह बिल्कुल सही समय है जब भारत के पास जल्दी ही अपना विधेयक हो। बनर्जी ने कहा कि एक राष्ट्रीय विधेयक होने पर ही हमारे लिए अंतरराष्ट्रीय परमाणुऊर्जा एजेंसी की परमाणु क्षति पर पूरक हर्जाने पर समझौते के साथ सामंजस्य आसान होगा, जो अभी प्रभाव में नहीं आया है।
उन्होंने कहा कि देश में परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड दुर्घटना का अंाकलन करेगा

राष्ट्रीय जाँच एजेंसी विधेयक

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राष्ट्रीय जांच एजेंसी विधेयक (एनआईए विधेयक), भारत सरकार का एक कानून है जो आतंकवाद से लडने के निमित्त बनाया गया है। यह दिसम्बर, २००८ में भारतीय लोकसभा में पारित हो गये हैं। इस कानून में कई कड़े प्रावधान देने की बात कही गई है, जिनसे आतंकवादियों का बच निकलना नामुमकिन हो।
प्रमुख प्रावधान
नैशनल इन्वेस्टिगेटिव एजंसी (एनआईए) बनाने का प्रस्ताव
इस एजंसी को विशेष अधिकार हासिल होंगी ताकि आतंकवाद संबंधी मामलों की जांच तेजी से की जा सके।
अब यह जिम्मेदारी पकड़े गए व्यक्ति की होगी कि वह खुद को निर्दोष साबित करे।
एनआईए के सब इंस्पेक्टर रैंक से ऊपर के अधिकारी को जांच के लिए स्पेशल पावर दी जाएगी।
एनआईए को 180 दिन तक आरोपियों की हिरासत मिल सकेगी। फिलहाल जांच एजंसी को गिरफ्तारी के 90 दिन के भीतर ही चार्जशीट फाइल करनी होती है।
विदेशी आतंकवादियों को जमानत नहीं मिल पायेगी।
एनआईए के अपने स्पेशल वकील और अदालतें होंगी जहां आतंकवाद से संबंधित मामलों की सुनवाई होगी।
नवम्बर 2008 में मुम्बई पर हुए आतंककारी हमले के बाद जनमत सख्त कार्रवाई के पक्ष में होने के कारण सरकार गैरकानूनी गतिविधियां (निवारक) विधेयक (यूएपीए) को लोकसभा में पिछली 17 दिसम्बर को पारित कराने में सफल रही। हमले के तीन सप्ताह के भीतर बिना किसी सार्थक बहस के यह विधेयक पारित हो गया। इस विधेयक के साथ ही राष्ट्रीय जांच कानून (एनआईए) भी पारित हुआ था। राज्यसभा से भी पारित होने के बाद ये दोनों कानून अब आतंककारी गतिविधियों से निपटने सम्बन्धी कानूनों में शामिल हैं। नई राष्ट्रीय जांच एजेंसीबहस का विषय बन गई है। उच्चतम न्यायालय ने उससे उसके अधिकारों के बारे में जवाब-तलब किया है। आतंकवाद की रोकथाम के लिए पहले भी कडे कानून बने हैं। आतंकवाद और विघटनकारी गतिविधियां (निवारक) अधिनियम पंजाब में आतंककारी गतिविधियां चरम पर होने के दौरान 1985 में पारित हुआ था। इस कानून को बाद में 'टाडा' के नाम से ज्यादा प्रसिद्धि मिली। यह कानून बीच में थोडी अवधि के लिए खत्म (लैप्स) हो गया था, लेकिन मई 1987 में इसे वापस लाया गया। टाडा में संशोधन 1993 में हुआ और 1995 में एक बार फिर यह लैप्स हो गया। आतंकवाद निवारक अधिनियम (पोटा) संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में वर्ष 2002 में पारित होकर कानून बना था। 'पोटा' को 2004 में रद्द कर दिया गया।

नवीनतम कानून की मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, कुछ विधिवेत्ताओं और बुद्धिजीवियों ने कडी आलोचना की। एनआईए की भी जमकर आलोचना हुई, हालांकि संविधान केन्द्रीय सूची में केन्द्रीय जांच एजेंसी के गठन की अनुमति देता है और इसी प्रावधान के तहत कई दशक पहले गठित केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) काम कर रहा है। आलोचना प्रमुख रू प से इस आधार पर थी कि यह राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण है, जो सीबीआई के गठन में नहीं हुआ था। एनआईए को किसी मामले में जांच के लिए सम्बन्घित राज्य की या अदालत से आदेश लेने की जरू रत नहीं होगी। हाल ही उच्चतम न्यायालय ने असम के समाज कल्याण उपनिदेशक आर.एच. खान के याचिका पेश करने पर एनआईए से जवाब तलब किया है। खान को मई 2009 में एक अलगाववादी संगठन दिमा हलाम दाओगाह (जोएल) को वित्तीय मदद देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। कुछ दिन बाद यह मामला एनआईए ने ले लिया था। इस तरह एनआईए के गठन के बाद उसमें दर्ज यह पहला मामला हो गया है। मूल रू प से मामला यूएपीए के तहत आने वाले अपराध के लिए दर्ज किया गया था। इन दोनों कानूनों की संवैधानिकता का फैसला उच्चतम न्यायालय करेगा। अदालत ने मूल गैरकानूनी गतिविधियां (निवारक) अधिनियम 1967, टाडा और पोटा का भी परीक्षण किया था।

यूएपीए की आलोचना इस प्रावधान के लिए की गई है कि किसी अभियुक्त को बिना मुकदमा चलाए 180 दिन तक हिरासत में रखा जा सकता है। आतंककारी कार्रवाइयों की परिभाषा में अब बम, डायनामाइट, जहर, जहरीली गैसों, जैविक, रेडियोधर्मी व नाभिकीय तत्वों के उपयोग को भी शामिल कर लिया गया है। आतंककारी कार्रवाई, उसमें मदद देने या उसके लिए उकसाने पर अब दस साल की सजा का प्रावधान कर दिया गया है। आतंककारी गतिविधियों के लिए आर्थिक मदद, उनके लिए प्रशिक्षण शिविर लगाना और आतंककारी गतिविधियों के लिए भर्ती करना भी अब दंडनीय अपराध है। कानून के तहत अदालतें अभियुक्त को इन मामलों में लिप्त मानेंगी। उन्हें अपनी बेगुनाही के सबूत देने होंगे।इसी तरह सरदार वल्लभ भाई पटेल के गृहमंत्री काल में 1950 में निवारक नजरबंदी कानून पारित हुआ था। सरदार पटेल ने कहा था कि इस विधेयक को पेश करने से पहले उन्हें कई रात नींद नहीं आई, क्योंकि उनका मानना था कि ऎसा कदम स्वतंत्र और लोकतांत्रिक सरकार के आदर्शों के प्रतिकूल है। उक्त कानून का मुख्य लक्ष्य तेलंगाना के कम्युनिस्ट थे। शुरू  में तो यह कानून थोडी अवधि के लिए ही बनाया गया था, लेकिन कई बार इसकी अवधि बढाई गई। आखिरकार उन्नीस साल बाद 1969 में यह लैप्स हो गया। राष्ट्रीय एकता परिषद की सिफारिश पर एक समिति गठित की गई थी। इस समिति को देश की एकता व अखण्डता की सुरक्षा के हित में अपने संविधान में प्रदत्त नागरिक स्वतंत्रता के अधिकारों पर यथोचित बंदिशें थोपने की जांच सौंपी गई। समिति की सिफारिशों को स्वीकार  कर संसद ने 1963  में भारत के संविधान में 16वां संशोधन किया। इस संशोधन के तहत बोलने और विचार व्यक्त करने की स्वतंता, बिना हथियार शांतिपूर्ण तरीके से किसी स्थान पर इकटे होने का अधिकार और एसोसिएशन व यूनियन बनाने के अधिकार पर यथोचित बंदिश लगाने की इजाजत दी गई है।

अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद ने नए अपराधों को जन्म दिया है, जिनसे निपटने के लिए नई प्रक्रिया और नए दण्ड प्रावधानों की जरूरत है। अपने देश में होने वाले आतंककारी अपराध वैश्विक प्रकृति के हैं। आतंककारियों की भर्ती, उन्हें हथियार, गोला-बारूद व विस्फोटक सामग्री उपलब्ध कराना, आतंककारी कार्रवाई की साजिश रचना, उसके लिए आर्थिक मदद देने का काम विदेश में बैठे सरकारी और गैरसरकारी तत्वों द्वारा किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र ने खुद इसे स्वीकार किया है और सुरक्षा परिषद ने ग्यारह प्रस्ताव पारित किए हैं, जिनमें सदस्य देशों के लिए आतंककारी वारदातों से निपटने के विशेष कानून बनाना लाजिमी किया गया है। दुनिया भर में यह स्वीकार किया जाता है कि बिना विशेष कानून बनाए आतंकवाद की चुनौती से निपटा नहीं जा सकता। यह सही है कि विशेष कानून के प्रावधानों को ईमानदारी से और बेहद सतर्कता के साथ लागू करना चाहिए। वैसे तो यह बात हर कानून और सरकारी आदेश के लिए लागू होती है।

सचाई और निष्कपटता ही सुशासन मापने के मानक हैं और उनमें कोई अपवाद नहीं होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने के लिए दुनिया के सभी देशों में जो कानून बन रहे हैं, उनके औचित्य पर बहस करना निरर्थक लगता है।

 भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के 1975 बैच के अधिकारी एस. सी. सिन्हा को बुधवार को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का प्रमुख नियुक्त किया गया।
सिन्हा ने आर. वी. राजू का स्थान लिया। राजू पिछले महीने सेवानिवृत्त हुए थे।
गृह मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया, "सिन्हा को एनआईए का महानिदेशक नियुक्त किया गया है।"
छप्पन वर्षीय सिन्हा इससे पहले केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के विशेष निदेशक थे


नक्सल ग्रस्त 33 जिलों के सांसदों की बैठक

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केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम और नक्सलवाद से ग्रस्त 33 जिलों के सांसदों की बैठक के बाद नक्सलियों के खिलाफ नए सिरे से किसी अभियान के छिड़ने के आसार और दुर्बल नजर आने लगे हैं। इसलिए और अधिक कि एक तो इस बैठक में योजना आयोग को नक्सल ग्रस्त इलाकों के सांसदों को विकास योजनाओं के बारे में जानकारी देनी पड़ी और दूसरे इसलिए भी कि ऐसे सभी सांसद इस बैठक में हाजिर नहीं हुए। यह सर्वथा विचित्र है कि गृहमंत्रालय को इसकी पहल करनी पड़ी कि नक्सलवाद से ग्रस्त इलाकों के सांसद योजना आयोग के जरिये यह जानें कि उनके यहां किस तरह के विकास कार्यक्रम चल रहे हैं और उनमें अब तक कितनी धनराशि खर्च हुई है। आखिर गृहमंत्रालय को यह काम क्यों करना चाहिए? सवाल यह भी है कि सांसदों को स्वत: इससे क्यों नहीं अवगत होना चाहिए कि उनके इलाके में विकास कार्यो की क्या स्थिति है? इस बैठक में सांसदों को यह भी बताया गया कि नक्सली किस तरह स्कूली इमारतों, सड़कों और टेलीफोन टावरों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। क्या यह भी कोई बताने की बात है और वह भी सांसदों को? इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि इस बैठक में नक्सल प्रभावित इलाकों के सभी सांसद शामिल नहीं हुए। शेष ऐसे सांसदों की बैठक आगे होगी। इतना ही नहीं, इन संासदों के सुझावों के आधार पर एक कार्ययोजना तैयार की जाएगी और फिर उसे मुख्यमंत्रियों के समक्ष रखा जाएगा। इसका मतलब है कि नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी एक बैठक बुलाई जाएगी। आश्चर्य नहीं कि इसके बाद इन राज्यों के पुलिस प्रमुखों और फिर मुख्य सचिवों की बैठक बुलाई जाए। क्या ऐसा नहीं लगता कि नक्सलवाद से निपटने की किसी पंचवर्षीय योजना पर काम शुरू हो गया है? इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि नक्सलवाद से ग्रस्त इलाकों में विकास कार्य प्राथमिकता के आधार पर होने चाहिए, लेकिन यदि यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्यों के साथ-साथ केंद्र भी उठा रहा है तो भी इसमें गृहमंत्रालय के हस्तक्षेप की गुंजाइश तो नजर ही नहीं आती। अब क्या गृहमंत्रालय यह देखने वाला है कि कैसे विकास कार्य कहां हो रहे हैं या नहीं हो रहे हैं? दंतेवाड़ा की घटना के बाद जैसे हालात उभर रहे हैं उनसे यही लगता है कि नक्सलवाद से न निपटने की नीति बनाई जा रही है। ध्यान रहे कि इसके पहले कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने किसी और पर नहीं, बल्कि गृहमंत्री पर ही हमला बोला। गृहमंत्री को न केवल गलत ठहराने की कोशिश की गई, बल्कि उन्हें अहंकारी भी बताया गया। इसके साथ-साथ नक्सलियों के गढ़ में विकास की महत्ता का भी ज्ञान दिया गया। क्या किसी ने और खासकर चिदंबरम ने राज्य सरकारों अथवा केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों पर इस तरह की कोई पाबंदी लगा रखी है कि वे नक्सलवाद से ग्रस्त क्षेत्रों में विकास कार्य रोक दें? यदि नहीं तो फिर उन्हें विकास की महत्ता क्यों बताई जा रही है? यह निराशाजनक ही नहीं, बल्कि चिंताजनक भी है कि जिन नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है उनसे न लड़ने के बहाने खोजे जा रहे हैं

अमेरिका जापान सुरक्षा संधि

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1952 में अमेरिका और जापान के बीच एक सुरक्षा संधि हुई, जिसके मुताबिक जापान की सुरक्षा का भार अमेरिका ने अपने ऊपर लिया। आम जापानियों को यह संधि पसंद नहीं थी। इस संधि के तहत अमेरिका ने जापान के 2800 सैनिक अड्डों पर 2,60,000 सैनिक तैनात कर दिए। अमेरिका और जापान के बीच सबसे महत्वपूर्ण संधि 16 जनवरी, 1960 को हुई जब जापान के प्रधानमंत्री नोबुसुके और अमेरिकी विदेश मंत्री क्रिशचन हर्टर ने एक ऐतिहासिक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसमें अमेरिका ने जापान की सुरक्षा का पूरा दायित्व अपने कंधों पर ले लिया। इस बीच विश्व राजनीति में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। वियतनाम का युद्ध हुआ, सोवियत संघ ध्वस्त हो गया, चीन एशिया का दादा बन बैठा और उत्तर कोरिया ने परमाणु बम बना लिया। इस बीच जापान में लोगों ने इस संधि का विरोध करना शुरू कर दिया। सबसे अधिक विरोध जापान के दक्षिणी द्वीप ओकिनावा में अमेरिकी सैनिक अड्डे को लेकर हो रहा है। अमेरिका ओकिनावा द्वीप को एक तरह से अपनी जागीर समझता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्राय: 12 हजार अमेरिकी सैनिक इस द्वीप में मारे गए थे और 37 हजार घायल हुए थे। तबसे आज तक ओकिनावा की जनता प्राय: हर महीने अमेरिकी फौज के खिलाफ प्रदर्शन कर यह मांग कर रही है कि ओकिनावा से सैनिक अड्डा हटाया जाए। हतोयामा ने लोगों की भावना की कद्र करते हुए वायदा कर दिया था कि वह जल्द से जल्द अमेरिकी सैनिक अड्डा हटा देंगे। परंतु अमेरिका इसके लिए किसी भी सूरत में तैयार नहीं है। ओकिनावा के पास एक छोटा-सा द्वीप तोकुनोशिमा है। यह ओकिनावा और एक अन्य प्रमुख द्वीप क्यूसू के बीच है। हतोयामा ने यह प्रस्ताव रखा था कि ओकिनावा के सैनिक अड्डे को हटाकर तोकुनोशिमा ले जाया जाए। वहां आबादी बहुत कम है। परंतु जैसे ही इस द्वीप के लोगों को हतोयामा के फैसले का पता चला, उन्होंने तीखा विरोध शुरू कर दिया। जब हतोयामा हाल में वहां गए थे तो 15,000 नागरिकों ने काले झंडे दिखाकर उनका विरोध किया था। अब हतोयामा पेशोपश में हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इस जटिल समस्या का समाधान कैसे निकाला जाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि हतोयामा की सरकार धीरे-धीरे अमेरिका से दूरी बना रही है। परंतु संभवत: वह यह नहीं समझ पा रही है कि चीन कभी किसी पड़ोसी का दोस्त नहीं हुआ है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि आने वाले दिनों में अमेरिका और जापान के रिश्तों में और अधिक कड़वाहट आएगी। 

International Atomic Energy Agency (IAEA)

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The International Atomic Energy Agency (IAEA) is an international organization that seeks to promote the peaceful use of nuclear energy, and to inhibit its use for any military purpose, including nuclear weapons. The IAEA was established as an autonomous organization on 29 July 1957. Though established independently of the United Nations through its own international treaty, the IAEA Statute,[1] the IAEA reports to both the UN General Assembly and Security Council.

The IAEA has its headquarters in Vienna, Austria. The IAEA has two "Regional Safeguards Offices" which are located in Toronto, Ontario,Canada, and in Tokyo, Japan. The IAEA also has two liaison offices which are located in New York City, New York, and in Geneva, Switzerland. In addition, the IAEA has three laboratories located in Vienna and Seibersdorf, Austria, and in Monaco.

The IAEA serves as an intergovernmental forum for scientific and technical cooperation in the peaceful use of nuclear technology and nuclear power worldwide. The programs of the IAEA encourage the development of the peaceful applications of nuclear technology, provide international safeguards against misuse of nuclear technology and nuclear materials, and promote nuclear safety (including radiation protection) and nuclear security standards and their implementation.

The IAEA and its Director General, Mohamed ElBaradei, were jointly awarded the Nobel Peace Prize that was awarded on October 7, 2005. The IAEA's current Director General is Yukiya Amano.

शिक्षा का अधिकार

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शिक्षा का अधिकार लागू हो जाने पर इस देश ने अपने चिरपरिचित अंदाज में लड़खड़ाते हुए अपनी नियति की राह पकड़ ली है। इस बिल को पास करने वाले हमारे सांसदों को देश की इस यात्रा पर चलने के संपूर्ण निहितार्थो का भान है। जब संविधान सभा ने बालिग मतदान व्यवस्था को लागू किया था तो एक बुजुर्ग राजनेता ने अपने साथी से कहा था, अब जनता को हमारा नियंता बनाने के बाद हमें उन्हें शिक्षित करने का काम शुरू कर देना चाहिए। छह दशक के बाद इस बात पर ध्यान दिया गया कि इस कार्य को ईमानदारी और कुशलता के साथ नहीं किया गया। परिणामस्वरूप पूरे विश्व में सर्वाधिक निरक्षर भारतीय हैं। हमारी राजनीति और शासन की बहुत से खामियां इसीलिए उभरी हैं कि हम सभी लोगों तक शिक्षा को पहुंचा पाने में विफल रहे हैं। अब इस पर विलाप करने का कोई लाभ नहीं है। हमें स्पष्ट तौर पर समझना चाहिए कि अगर हर बच्चे को शिक्षित बना दिया जाता तो देश की क्या सूरत होती! अगले कुछ दशकों में भारत चीन को पछाड़कर संसार का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। जापान, चीन, रूस और यूरोपीय संघ में उम्रदराज लोगों की अधिक संख्या के विपरीत भारत के जनसांख्यिकीय विकास में युवा वर्ग का बाहुल्य होगा। भारत में 55 प्रतिशत लोग 25 साल से कम उम्र के हैं। अगर इन लोगों को शिक्षित करके उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि कर दी जाए तो भारत विश्व की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति के रूप में उभर सकता है। यह सर्वविदित है कि 21वीं सदी में मिसाइल और परमाणु हथियार के बजाय ज्ञान ही शक्ति की परिभाषा बनेगा। अगले तीन दशकों में भारत में युवा शक्ति के आकार की कोई बराबरी नहीं कर पाएगा। आने वाले समय में विश्व में कुशल भारतीयों की मांग में तेजी से वृद्धि होगी, खासतौर पर अंग्रेजीभाषी देशों में। इंटरनेंट, विज्ञान व प्रौद्योगिकी तथा व्यापार की संपर्क भाषा अंग्रेजी है और रहेगी। इसी कारण अंतरराष्ट्रीय सामरिक समुदाय भारत के उदय में कोई खतरा महसूस नहीं करता। इस असाधारण कार्यक्रम को कार्यान्वित करते समय हमें उन कमियों पर भी ध्यान रखना पड़ेगा कि पूर्वी एशियाई देशों के विपरीत भारत पिछले छह दशकों में आबादी को शिक्षित क्यों नहीं कर पाया। योजना आयोग ने सभी प्रदेशों के लिए समान प्रति व्यक्ति संसाधन उपलब्ध कराए हैं, किंतु अलग-अलग प्रदेशों में नतीजा अलग-अलग निकला है। विभिन्न राज्यों में साक्षरता, आर्थिक संवृद्धि और शासन के मानकों में सह-संबंध रहा है। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को बीमारू राज्यों का तमगा मिला है, जबकि दक्षिण और तटीय राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। कुछ राजनेताओं की यह सोच बन गई है जनता पर शासन तभी किया जा सकता है जब उसे शिक्षा और साक्षरता से वंचित रखा जाए। पैसा तो खर्च किया गया, किंतु स्कूल भवनों का निर्माण नहीं हुआ। अध्यापक स्कूलों से गैरहाजिर रहते हुए भी वेतन उठाते रहे। ऐसा शायद इसलिए हो पाया, क्योंकि राजनेताओं ने मान लिया कि अशिक्षित जनता को जातीय वोट बैंक में आसानी से बदला जा सकता है और धनबल व बाहुबल के बल पर 25-30 प्रतिशत वोट जुटा कर चुनावों में जीत हासिल की जा सकती है। इस सोच के कारण देश मंें असमान आर्थिक विकास और शिक्षा का असमान प्रसार हुआ। भारत में अधिकांश इंजीनियर दक्षिण राज्यों से आए हैं। अगर भारत में समावेशी आर्थिक विकास न होने की उचित ही आलोचना की जाती है तो इसका प्रमुख कारण देश में शिक्षा का समान प्रसार न होना ही है। शिक्षा ही गरीबी मिटाने और वंचित तबके के सशक्तिकरण का पासपोर्ट है। दीर्घकाल में जैसे-जैसे देश में शहरीकरण बढ़ेगा, शिक्षा ही जातिवाद और सांप्रदायिकता पर चोट करेगी। इसलिए तुच्छ निहित स्वार्थो के कारण बहुत से राजनेता शिक्षा के अधिकार के रास्ते में बाधाएं खड़ी करने का प्रयास करेंगे ताकि देश में गरीबी, जातिवाद, सांप्रदायिकता और इन पर आधारित उनका वोट बैंक बदस्तूर कायम रहे। शिक्षा के अधिकार पर कुछ लोग पहले ही संदेह उठाने लगे हैं कि देश में शिक्षकों की भारी कमी के कारण इसके लक्ष्यों की पूर्ति संभव नहीं है। अगर केंद्र सरकार शिक्षा के अधिकार का हश्र पूर्ववर्ती प्राथमिक शिक्षा और साक्षरता कार्यक्रमों जैसा नहीं चाहती तो उसे शिक्षा के अधिकार का इंजन बनना पड़ेगा। माध्यमिक, वोकेशनल और उच्च शिक्षा में सुधार के संबंध में तुरंत कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। संप्रग सरकार को वर्तमान कार्यकाल के पहले तीन वर्षो में इन सुधारों को लागू करना और बाद के दो वर्षो में इन्हें गति प्रदान करना चाहिए। भारत में शैक्षिक सुधारों का कदम उससे भी अधिक क्रांतिकारी है, जितना मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक सुधार थे और जितना भारत-अमेरिका परमाणु करार है।

आपदा प्रबंधन

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भारत में लोगों को आपदासे बचाना या तत्काल राहत देना किसकी जिम्मेदारी है?..हमें नहीं मालूम! हमारी छोड़िए..पांच दशकों से सरकार भी इसी यक्ष प्रश्न से जूझ रही है। दरअसल आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी आपदा यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की जिम्मेदारी अनेक की है और किसी एक की नहीं।
इस देश में जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान से जूझ रहे होते हैं, तब दिल्ली में फाइलें सवाल पूछ रही होती हैं कि आपदा प्रबंधन किसका दायित्व है? कैबिनेट सचिवालय? जो हर मर्ज की दवा है। गृह मंत्रालय? जिसके पास दर्जनों दर्द हैं। प्रदेश का मुख्यमंत्री? जो केंद्र के भरोसे है। या फिर नवगठित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण? जिसे अभी तक सिर्फ ज्ञान देने और विज्ञापन करने का काम मिला है। एक प्राधिकरण सिर्फ 65 करोड़ रुपये के सालाना बजट में कर भी क्या सकता है। ध्यान रखिए कि इस प्राधिकरण के मुखिया खुद प्रधानमंत्री हैं।
जिस देश में हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें लील जाती हो, पिछले 270 वर्षो में जिस भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस मुल्क की 59 फीसदी जमीन कभी भी थरथरा सकती हो और पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों, वहां आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है।
सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है। भारत काआपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है। आपदा प्रबंधनका एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथ में है तो दूसरा गृह मंत्रालय, तीसरा राज्यों, चौथाराष्ट्रीय आपदा प्रबंधन या फिर पांचवां सेना के। समझना मुश्किल नहीं है कि इस तंत्र में जिम्मेदारी टालने के अलावा और क्या हो सकता है। गृह मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी का यह कहना, 'आपदा प्रबंधन तंत्र की संरचना ही अपने आप में आपदा है। प्रकृति के कहर से तो हम जूझ नहीं पा रहे, अगर मानवजनित आपदाएं मसलन जैविक या आणविक हमला हो जाए तो फिर सब कुछ भगवान भरोसे ही होगा..', भी यही जाहिर करता है।
उल्लेखनीय है कि सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया था, उसका मकसद और कार्य क्या है यही अभी तय नहीं हो सका है। सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति का कारण बनने वाली आपदाओं से जूझने के लिए इसे साल में 65 करोड़ रुपये मिलते हैं और काम है लोगों को आपदाओं से बचने के लिए तैयार करना। पर बुनियादी सवाल यह है कि आपदा आने के बाद लोगों को बचाए कौन? यकीन मानिए कि जैसा तंत्र है उसमें लोग भगवान भरोसे ही बचते हैं।
भारत में आपदा की कीमत
बाढ़: हर पांच साल में 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें
तूफान: पिछले 270 वर्षो में भारतीय उप महाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली, छह लाख जानें गई
भूकंप: मुल्क की 59 फीसदी जमीन पर कभी भी भूकंप का खतरा। पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में 24 हजार से ज्यादा लोगों की मौत
आपदा प्रबंधन का हाल
जिम्मेदारी: संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू हुई, लेकिन तय नहीं हो सका कि किसके हाथ है प्रबंधन की कमान
यक्ष प्रश्न: हर कहर के बाद जिम्मेदारी के यक्ष प्रश्न में उलझ जाता है तंत्र
रकम: आपदाओं के चलते सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति होती है और इनसे जूझने के लिए आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को दिए जाते हैं महज 65 करोड़।
इन सबों के बीच हमें गुजरात से आपदा प्रबंधन सीखना चाहिए जहां बीस मीटर की गहराई में दबे इंसान की धड़कन सुनने वाला यंत्र, गोताखोरों को लगातार 12 घंटे तक आक्सीजन देने वाला ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च कैमरा, आधुनिक इन्फेलेटेबल बोट, हाई वाल्यूम वाटर पंपिंग..। आप सोच रहे होंगे कि यह किसी विकसित देश के राहत दल की तकनीकी क्षमता का ब्यौरा है। जी नहीं! यह और ऐसी तमाम क्षमताएं व विशेषज्ञताएं इसी देश के एक राज्य, गुजरात में मौजूद हैं और इन्हीं के बूते आपदाप्रबंधन के मामले में गुजरात विकसित देशों से मुकाबले की स्थिति में आ गया है।
सोलह सौ किलोमीटर से अधिक के समुद्री किनारे तथा भूकंप के मामले में सक्रिय अफगानिस्तान से प्लेट जुड़ा होने के कारण गुजरात पर हमेशा आपदाओं का खतरा बना रहता है। लेकिन गुजरात ने आपत्ति को अवसर में बदलते हुए आपदा प्रबंधन में एक अनोखी दक्षता हासिल की है। आज गुजरात की यह विशेषज्ञता व उपकरण बिहार के बाढ़ पीड़ितों की जान बचा रहे हैं। मुख्य फायर आफिसर एम.एफ. दस्तूर बताते है कि इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम उनकी आपदा टीम की धड़कन है। यह उपकरण जमीन के नीचे बीस मीटर की गहराई में दबे किसी इसान के दिल की धड़कन तक सुन लेता है। मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार 12 घटे (आम ब्रीदिंग सिस्टम की क्षमता 45 मिनट तक आक्सीजन देने की है) तक आक्सीजन उपलब्ध कराने वाला अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेटस भी सरकार के पास हैं।
यहां का आपदा प्रबंधन तंत्र आधुनिक मास्क, इन्फ्लेटेबल बोट, हाई वाल्यूम पंपिंग यूनिट आदि आधुनिक उपकरणों से लैस है। यहां आपदा प्रबंधन दल के पास नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट भी है, जो मजबूत छत को फोड़ कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है। सरकार ने अग्निकांड से निपटने के लिए बड़ी संख्या में अल्ट्रा हाई प्रेशर फाइटिग सिस्टम भी खरीदे हैं। आम तौर पर आग बुझाने में किसी अन्य उपकरण से जितना पानी लगता है, यह सिस्टम उससे 15 गुना कम पानी में काम कर देता है। इसे अहमदाबाद के दाणीलीमड़ा मुख्य फायर स्टेशन ने डिजाइन किया है। यह आग पर पानी की एक चादर सी बिछा कर गर्मी सोख लेता है।
अमेरिका के सर्च कैमरे तथा स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे भी सरकार ने अपनी राहत और बचाव टीमों को दिए हैं। ये उपकरण जमीन के दस फीट नीचे तथा 770 फीट गहरे पानी में भी तस्वीरे उतार कर वहां फंसे व्यक्ति का सटीक विवरण देते हैं। अमरीका की लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में या ऊंची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन के जरिए रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है। राज्य की एम्बुलेंस सेवा 108 ने तो गंभीर वक्त पर बहुत अच्छे परिणाम दिए है। अब गुजरात में कहीं भी पंद्रह मिनट में एम्बुलेंस सेवा प्राप्त की जा सकती है। उधर सासद हरिन पाठक कहते हैं कि अमेरिका भले व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर का मलबा तीन साल तक नहीं हटा सका, लेकिन गुजरात ने महज एक वर्ष के भीतर भूकंप की विनाशलीला का कोई चिह्न नहीं रहने दिया.
 वर्तमान में आपदा प्रबन्धन का सरकारी तंत्र देखें ता कैबिनेट सचिव, गृहमंत्रालय, राज्यों में मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन विभाग और सेना इस तंत्र का हिस्सा हैं। यह भी सच है कि हमारे देश में आपदा प्रबन्धन की स्थिति ज्यादा ही लचर है। हमारे आपदा प्रबन्धन की कमजोर कड़ी लगभग हर आपदा में ढीली दिखी, लकिन हमने उसे मजबूत करन का प्रयास नहीं किया। मीडिया की भाषा में यह ‘प्रशासनिक लापरवाही’ अथवा न्यायपालिका की भाषा में ‘आपराधिक निष्क्रियता’ है। प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है जागरूकता और प्रभावित क्षेत्रा में तत्काल राहत एजेन्सी की पहुंच। यदि लोगों में आपदा की जागरूकता नहीं है तो तबाही भीषण होगी और राहत में दिक्कतें आएंगी। आपदा सम्भावित क्षेत्र में तो लोगों को बचाव की बुनियादी जानकारी देकर भी आपदा से होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है। आपदा प्रबन्धन के बाकी तत्वों में ठीक नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, ईमानदार एवं प्रभावी नेतृत्व, समन्वय आदि काफी महत्वपूर्ण हैं। हमारे देश में व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहां सब-एक दूसरे पर जिम्मेवारी डालते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन 5 से 10 हजार करोड़ की आर्थिक क्षति तो प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से उठाते हैं लकिन इससे जूझन के लिये आपदा प्रबन्धन पर हमारा बजट महज 65 करोड़ रुपये है। इस धनराशि में अधिकांश प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाता है। प्रशिक्षण की अभी तो तैयारी भी नहीं है। वर्ष 2005 में आपदा प्रबन्धन अधिनियम संसद ने पारित कर दिया है। इसके बाद से ही राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है। प्राधिकरण के सदस्य के. एम़ सिंह कहते हैं, ‘‘महज तीन साल में ही हमसे ज्यादा अपेक्षा क्यों रखते हैं? वक्त दीजिये हम एक प्रभावी आपदा प्रबन्धन उपलब्ध कराएंगे।’’ बिहार में अभी हुई भीषण तबाही का आकलन आसान नहीं है, लकिन अनुमान है कि क्षति 5 से 10 हजार करोड़ के बीच होगी। 600 प्रभावित गांवों में लगभग 350 गांव तो पूरी तरह डूब गए हैं। प्रशासनिक विफलता का नमूना यह है कि प्रभावित क्षेत्र में अधिकारी यही कहते पाए गए कि, ‘पहले हम बचेंगे तभी तो तुम लोगों को बचाएंगे?’ बिहार की इस बाढ़ ने सरकारी तंत्र, राहत एजेन्सी, राहत योजना सबको धोकर रख दिया है। कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने राहत कार्य का संचालन अपने हाथों में लिया है लकिन समन्वय के अभाव में राहत सामग्री का सिलसिलेवार वितरण नहीं हो पा रहा है। एक कन्ट्रोल रूम बना कर एनजीओ और बिहार सरकार समन्वित सूचना प्रणाली के जरिये राहत कार्य व्यवस्था को और बेहतर व मजबूत बना सकते हैं। गुजरात भूकम्प के बाद वहां विकसित प्रभावी आपदा प्रबन्धन तंत्र एक मिसाल है। इस मॉडल को अन्य राज्य सरकारें अपना सकती हैं। इस समय गुजरात आपदा प्रबन्धन विभाग को विश्वस्तरीय आपदा प्रबन्ध्न संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि ऐसा है, तो अन्य राज्य सरकारों को भी अपना आपदा प्रबन्धन तंत्र मजबूत और प्रभावी बनाना चाहिए। बाढ़ प्रभावित इलाके में स्थानीय मदद से प्रत्येक गांव या दो-तीन गांवों पर एक आपदा राहत केन्द्र की स्थापना कर वहां दो-तीन महीन का अनाज, पर्याप्त साधन, जरूरी दवाएं, पशुओं का चारा, नाव, तारपोलीन व अन्य जरूरी चीजों का बाढ़ से पूर्व ही इन्तजाम सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

मेघालय में यूरेनियम का खनन

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मेघालय में यूरेनियम का खनन करने की योजना बना रही यूरेनियम कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) इस परियोजना पर आगे बढ़ने से पहले स्थानीय लोगों को विश्वास में लेगी। मेघालय में यूरेनियम अयस्क के 92.2 लाख टन भंडार हैं। मेघालय के पश्चिमी खासी हिल्स जिले के स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे संगठन परियोजना के खिलाफ हैं। वे मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने का हवाला देकर इसका विरोध कर रहे हैं। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष और परमाणु ऊर्जा विभाग के सचिव श्रीकुमार बनर्जी ने कहा कि जहां तक यूरेनियम खनन का सवाल है तो जहां तक संभव होता है, हम हमेशा जनता का समर्थन लेते हैं। उनकी सहमति के बिना कुछ भी नहीं किया जाएगा। उन्होंने कहा कि यूरेनियम का खनन बहुत सुरक्षित अभियान है और यूसीआईएल खनन शुरू करने से पहले स्थिति स्पष्ट कर देगी। साथ ही उन्होंने कहा कि कंपनी स्थानीय लोगों को अभियान की सुरक्षा के बारे में समझाने को लेकर आश्वस्त है। यूसीआईएल डीएई के तहत सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है। यूसीआईएल मेघालय में एक दशक से अधिक समय से यूरेनियम का खनन करने की प्रतीक्षा कर रहा है। हालांकि कुछ विकासात्मक गतिविधियों के जरिए स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल करने का प्रयास करने के बावजूद यूसीआईएल खनन नहीं कर सकी है।

उत्तर प्रदेश रोड नेटवर्क

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उत्तर प्रदेश रोड नेटवर्क के मामले में 28 राज्यों की सूची में 24 वें स्थान पर है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति एक लाख जनसंख्या पर 259.54 किलोमीटर सड़क का औसत है जबकि यूपी में यह औसत 147.08 है। सूबे में हुकूमत कर चुकीं पार्टियां इस पिछड़ेपन का ठीकरा दूसरे पर फोड़ खुद पाक-साफ दिखना चाहती हैं। फिलवक्त तो केंद्र-राज्य का झगड़ा शबाब पर है। केंद्र का आरोप है कि वह सड़कों के लिए पैसा दे रहा है लेकिन उप्र की दिलचस्पी सिर्फ मूर्तियां और पार्क बनवाने में है। राज्य सरकार का कहना है कि केंद्र से कोई मदद नहीं मिल रही। उप्र में रोड नेटवर्क की इस बदहाली को जानने के लिए आंकड़ों पर गौर फरमाना होगा। सूबे में 1,63,093 किलोमीटर लंबाई की सड़कें हैं। इनमें से 6667 किमी मार्ग राष्ट्रीयकृत हैं, जिसमें 2423 किमी सड़क को केंद्र द्वारा भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) को हस्तानान्तरित किया जा चुका है। इनमें से 1944 किमी राष्ट्रीय मार्गो के चौड़ीकरण और सुधार के कार्यो को लगभग आठ वर्ष पूर्व शुरू किया गया, जो अब तक पूरा नहीं हो सका है। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के लखनऊ-गोरखपुर, कानपुर-झांसी, लखनऊ-सीतापुर और हापुड़-मुरादाबाद राजमार्ग काफी समय से अधूरे पड़े हैं। लखनऊ-रायबरेली-इलाहाबाद, बाराबंकी-बहराइच-रुपईडीहा और गोरखपुर-सोनौली राष्ट्रीय मार्ग को भी एनएचएआई को हस्तानांतरित किया जा चुका है, पर उन्हें प्राधिकरण ने अपने किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया है। परिणामस्वरूप वे बदहाली का शिकार हैं। राज्य सरकार का आरोप है कि राष्ट्रीय मार्गो के रखरखाव और सुधार के लिए गत वर्ष अपेक्षित धनराशि उपलब्ध नहीं कराई गयी, जिसके कारण आगरा-अलीगढ़, अलीगढ़-बुलंदशहर, वाराणसी-गोरखपुर और कानपुर-हमीरपुर आदि राष्ट्रीय मार्ग बुरी तरह क्षतिग्रस्त हैं। राज्य सरकार का यह तक आरोप है कि केंद्र का सूबे के प्रति उपेक्षा का ही परिणाम है कि अधिकांश परियोजनाएं टाईम ओवर रन/ कास्ट ओवर रन के बिना पूरी नहीं हो रही हैं। प्रदेश के कुल 99526 ग्रामों में 14105 गांव ऐसे हैं जो अभी तक संपर्क मार्गो से जुड़ ही नहीं पाये हैं। इसी तरह प्रदेश में 1,70,004 बसावटें(हैबिटेशन) में 45,891 मुख्य मार्गो से अब तक नहीं जुड़ पायी हैं। जी हां, एक्सप्रेस वे की तैयारियों में जुटे सूबे की यह हालात आंख खोलने के लिए काफी हैं कि इन बसावटों को अभी भी विकास की पहली दस्तक यानी एक अदद खड़ंजा मार्ग का इंतजार है। नौ साल में नहीं बन सका बाईपास : यूपी में सड़कों की दुदर्शा जानने के लिए शुरुआत करते हैं लखनऊ से। वर्ष 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा शुरू कराया गया अमर शहीद बाई पास का निर्माण नौ साल बीत जाने के बाद भी पूरा नहीं हो पाया है। बाई पास के न बनने से भारी वाहनों का शहर से बीचों बीच से होकर गुजरना जारी है। नतीजा, जनता को आए दिन भारी वाहनों से होने वाले हादसों से रु-ब-रू होना पड़ता है। दशक बाद भी पूरा न हो सका चौड़ीकरण : कानपुर-लखनऊ के बीच स्थित 86 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-25) के चौड़ीकरण का काम वर्ष 2000 में शुरू हुआ था। दस साल की अवधि में भी यह काम पूरा नहीं हो सका है। जो सड़क बनी भी, वह भी अब उखड़ने लगी है। हादसों को दावत देने वाली इस आधी अधूरी सड़क के दिन बहुरने में अभी कितना वक्त और लगेगा, यह तय नही है (भले ही दावा कुछ भी किया जाए)। लखनऊ-कानपुर राष्ट्रीय राजमार्ग की सबसे बुरी दशा उन्नाव के बाद शुरु होती है। फोर लेन की यह सड़क उन्नाव से कानपुर के बीच कई जगह टू लेन में बदल जाती है। आलम यह है कि लखनऊ से उन्नाव पहुंचने में जितना वक्त लगता है, उससे कहीं ज्यादा उसके बाद के उस सोलह किमी. के रास्ते को तय करने में लगता है, जो अधूरा पड़ा है