Sunday, May 2, 2010
शिक्षा का अधिकार
शिक्षा का अधिकार लागू हो जाने पर इस देश ने अपने चिरपरिचित अंदाज में लड़खड़ाते हुए अपनी नियति की राह पकड़ ली है। इस बिल को पास करने वाले हमारे सांसदों को देश की इस यात्रा पर चलने के संपूर्ण निहितार्थो का भान है। जब संविधान सभा ने बालिग मतदान व्यवस्था को लागू किया था तो एक बुजुर्ग राजनेता ने अपने साथी से कहा था, अब जनता को हमारा नियंता बनाने के बाद हमें उन्हें शिक्षित करने का काम शुरू कर देना चाहिए। छह दशक के बाद इस बात पर ध्यान दिया गया कि इस कार्य को ईमानदारी और कुशलता के साथ नहीं किया गया। परिणामस्वरूप पूरे विश्व में सर्वाधिक निरक्षर भारतीय हैं। हमारी राजनीति और शासन की बहुत से खामियां इसीलिए उभरी हैं कि हम सभी लोगों तक शिक्षा को पहुंचा पाने में विफल रहे हैं। अब इस पर विलाप करने का कोई लाभ नहीं है। हमें स्पष्ट तौर पर समझना चाहिए कि अगर हर बच्चे को शिक्षित बना दिया जाता तो देश की क्या सूरत होती! अगले कुछ दशकों में भारत चीन को पछाड़कर संसार का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। जापान, चीन, रूस और यूरोपीय संघ में उम्रदराज लोगों की अधिक संख्या के विपरीत भारत के जनसांख्यिकीय विकास में युवा वर्ग का बाहुल्य होगा। भारत में 55 प्रतिशत लोग 25 साल से कम उम्र के हैं। अगर इन लोगों को शिक्षित करके उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि कर दी जाए तो भारत विश्व की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति के रूप में उभर सकता है। यह सर्वविदित है कि 21वीं सदी में मिसाइल और परमाणु हथियार के बजाय ज्ञान ही शक्ति की परिभाषा बनेगा। अगले तीन दशकों में भारत में युवा शक्ति के आकार की कोई बराबरी नहीं कर पाएगा। आने वाले समय में विश्व में कुशल भारतीयों की मांग में तेजी से वृद्धि होगी, खासतौर पर अंग्रेजीभाषी देशों में। इंटरनेंट, विज्ञान व प्रौद्योगिकी तथा व्यापार की संपर्क भाषा अंग्रेजी है और रहेगी। इसी कारण अंतरराष्ट्रीय सामरिक समुदाय भारत के उदय में कोई खतरा महसूस नहीं करता। इस असाधारण कार्यक्रम को कार्यान्वित करते समय हमें उन कमियों पर भी ध्यान रखना पड़ेगा कि पूर्वी एशियाई देशों के विपरीत भारत पिछले छह दशकों में आबादी को शिक्षित क्यों नहीं कर पाया। योजना आयोग ने सभी प्रदेशों के लिए समान प्रति व्यक्ति संसाधन उपलब्ध कराए हैं, किंतु अलग-अलग प्रदेशों में नतीजा अलग-अलग निकला है। विभिन्न राज्यों में साक्षरता, आर्थिक संवृद्धि और शासन के मानकों में सह-संबंध रहा है। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को बीमारू राज्यों का तमगा मिला है, जबकि दक्षिण और तटीय राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। कुछ राजनेताओं की यह सोच बन गई है जनता पर शासन तभी किया जा सकता है जब उसे शिक्षा और साक्षरता से वंचित रखा जाए। पैसा तो खर्च किया गया, किंतु स्कूल भवनों का निर्माण नहीं हुआ। अध्यापक स्कूलों से गैरहाजिर रहते हुए भी वेतन उठाते रहे। ऐसा शायद इसलिए हो पाया, क्योंकि राजनेताओं ने मान लिया कि अशिक्षित जनता को जातीय वोट बैंक में आसानी से बदला जा सकता है और धनबल व बाहुबल के बल पर 25-30 प्रतिशत वोट जुटा कर चुनावों में जीत हासिल की जा सकती है। इस सोच के कारण देश मंें असमान आर्थिक विकास और शिक्षा का असमान प्रसार हुआ। भारत में अधिकांश इंजीनियर दक्षिण राज्यों से आए हैं। अगर भारत में समावेशी आर्थिक विकास न होने की उचित ही आलोचना की जाती है तो इसका प्रमुख कारण देश में शिक्षा का समान प्रसार न होना ही है। शिक्षा ही गरीबी मिटाने और वंचित तबके के सशक्तिकरण का पासपोर्ट है। दीर्घकाल में जैसे-जैसे देश में शहरीकरण बढ़ेगा, शिक्षा ही जातिवाद और सांप्रदायिकता पर चोट करेगी। इसलिए तुच्छ निहित स्वार्थो के कारण बहुत से राजनेता शिक्षा के अधिकार के रास्ते में बाधाएं खड़ी करने का प्रयास करेंगे ताकि देश में गरीबी, जातिवाद, सांप्रदायिकता और इन पर आधारित उनका वोट बैंक बदस्तूर कायम रहे। शिक्षा के अधिकार पर कुछ लोग पहले ही संदेह उठाने लगे हैं कि देश में शिक्षकों की भारी कमी के कारण इसके लक्ष्यों की पूर्ति संभव नहीं है। अगर केंद्र सरकार शिक्षा के अधिकार का हश्र पूर्ववर्ती प्राथमिक शिक्षा और साक्षरता कार्यक्रमों जैसा नहीं चाहती तो उसे शिक्षा के अधिकार का इंजन बनना पड़ेगा। माध्यमिक, वोकेशनल और उच्च शिक्षा में सुधार के संबंध में तुरंत कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। संप्रग सरकार को वर्तमान कार्यकाल के पहले तीन वर्षो में इन सुधारों को लागू करना और बाद के दो वर्षो में इन्हें गति प्रदान करना चाहिए। भारत में शैक्षिक सुधारों का कदम उससे भी अधिक क्रांतिकारी है, जितना मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक सुधार थे और जितना भारत-अमेरिका परमाणु करार है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment