Sunday, May 2, 2010

राष्ट्रीय जाँच एजेंसी विधेयक

राष्ट्रीय जांच एजेंसी विधेयक (एनआईए विधेयक), भारत सरकार का एक कानून है जो आतंकवाद से लडने के निमित्त बनाया गया है। यह दिसम्बर, २००८ में भारतीय लोकसभा में पारित हो गये हैं। इस कानून में कई कड़े प्रावधान देने की बात कही गई है, जिनसे आतंकवादियों का बच निकलना नामुमकिन हो।
प्रमुख प्रावधान
नैशनल इन्वेस्टिगेटिव एजंसी (एनआईए) बनाने का प्रस्ताव
इस एजंसी को विशेष अधिकार हासिल होंगी ताकि आतंकवाद संबंधी मामलों की जांच तेजी से की जा सके।
अब यह जिम्मेदारी पकड़े गए व्यक्ति की होगी कि वह खुद को निर्दोष साबित करे।
एनआईए के सब इंस्पेक्टर रैंक से ऊपर के अधिकारी को जांच के लिए स्पेशल पावर दी जाएगी।
एनआईए को 180 दिन तक आरोपियों की हिरासत मिल सकेगी। फिलहाल जांच एजंसी को गिरफ्तारी के 90 दिन के भीतर ही चार्जशीट फाइल करनी होती है।
विदेशी आतंकवादियों को जमानत नहीं मिल पायेगी।
एनआईए के अपने स्पेशल वकील और अदालतें होंगी जहां आतंकवाद से संबंधित मामलों की सुनवाई होगी।
नवम्बर 2008 में मुम्बई पर हुए आतंककारी हमले के बाद जनमत सख्त कार्रवाई के पक्ष में होने के कारण सरकार गैरकानूनी गतिविधियां (निवारक) विधेयक (यूएपीए) को लोकसभा में पिछली 17 दिसम्बर को पारित कराने में सफल रही। हमले के तीन सप्ताह के भीतर बिना किसी सार्थक बहस के यह विधेयक पारित हो गया। इस विधेयक के साथ ही राष्ट्रीय जांच कानून (एनआईए) भी पारित हुआ था। राज्यसभा से भी पारित होने के बाद ये दोनों कानून अब आतंककारी गतिविधियों से निपटने सम्बन्धी कानूनों में शामिल हैं। नई राष्ट्रीय जांच एजेंसीबहस का विषय बन गई है। उच्चतम न्यायालय ने उससे उसके अधिकारों के बारे में जवाब-तलब किया है। आतंकवाद की रोकथाम के लिए पहले भी कडे कानून बने हैं। आतंकवाद और विघटनकारी गतिविधियां (निवारक) अधिनियम पंजाब में आतंककारी गतिविधियां चरम पर होने के दौरान 1985 में पारित हुआ था। इस कानून को बाद में 'टाडा' के नाम से ज्यादा प्रसिद्धि मिली। यह कानून बीच में थोडी अवधि के लिए खत्म (लैप्स) हो गया था, लेकिन मई 1987 में इसे वापस लाया गया। टाडा में संशोधन 1993 में हुआ और 1995 में एक बार फिर यह लैप्स हो गया। आतंकवाद निवारक अधिनियम (पोटा) संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में वर्ष 2002 में पारित होकर कानून बना था। 'पोटा' को 2004 में रद्द कर दिया गया।

नवीनतम कानून की मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, कुछ विधिवेत्ताओं और बुद्धिजीवियों ने कडी आलोचना की। एनआईए की भी जमकर आलोचना हुई, हालांकि संविधान केन्द्रीय सूची में केन्द्रीय जांच एजेंसी के गठन की अनुमति देता है और इसी प्रावधान के तहत कई दशक पहले गठित केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) काम कर रहा है। आलोचना प्रमुख रू प से इस आधार पर थी कि यह राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण है, जो सीबीआई के गठन में नहीं हुआ था। एनआईए को किसी मामले में जांच के लिए सम्बन्घित राज्य की या अदालत से आदेश लेने की जरू रत नहीं होगी। हाल ही उच्चतम न्यायालय ने असम के समाज कल्याण उपनिदेशक आर.एच. खान के याचिका पेश करने पर एनआईए से जवाब तलब किया है। खान को मई 2009 में एक अलगाववादी संगठन दिमा हलाम दाओगाह (जोएल) को वित्तीय मदद देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। कुछ दिन बाद यह मामला एनआईए ने ले लिया था। इस तरह एनआईए के गठन के बाद उसमें दर्ज यह पहला मामला हो गया है। मूल रू प से मामला यूएपीए के तहत आने वाले अपराध के लिए दर्ज किया गया था। इन दोनों कानूनों की संवैधानिकता का फैसला उच्चतम न्यायालय करेगा। अदालत ने मूल गैरकानूनी गतिविधियां (निवारक) अधिनियम 1967, टाडा और पोटा का भी परीक्षण किया था।

यूएपीए की आलोचना इस प्रावधान के लिए की गई है कि किसी अभियुक्त को बिना मुकदमा चलाए 180 दिन तक हिरासत में रखा जा सकता है। आतंककारी कार्रवाइयों की परिभाषा में अब बम, डायनामाइट, जहर, जहरीली गैसों, जैविक, रेडियोधर्मी व नाभिकीय तत्वों के उपयोग को भी शामिल कर लिया गया है। आतंककारी कार्रवाई, उसमें मदद देने या उसके लिए उकसाने पर अब दस साल की सजा का प्रावधान कर दिया गया है। आतंककारी गतिविधियों के लिए आर्थिक मदद, उनके लिए प्रशिक्षण शिविर लगाना और आतंककारी गतिविधियों के लिए भर्ती करना भी अब दंडनीय अपराध है। कानून के तहत अदालतें अभियुक्त को इन मामलों में लिप्त मानेंगी। उन्हें अपनी बेगुनाही के सबूत देने होंगे।इसी तरह सरदार वल्लभ भाई पटेल के गृहमंत्री काल में 1950 में निवारक नजरबंदी कानून पारित हुआ था। सरदार पटेल ने कहा था कि इस विधेयक को पेश करने से पहले उन्हें कई रात नींद नहीं आई, क्योंकि उनका मानना था कि ऎसा कदम स्वतंत्र और लोकतांत्रिक सरकार के आदर्शों के प्रतिकूल है। उक्त कानून का मुख्य लक्ष्य तेलंगाना के कम्युनिस्ट थे। शुरू  में तो यह कानून थोडी अवधि के लिए ही बनाया गया था, लेकिन कई बार इसकी अवधि बढाई गई। आखिरकार उन्नीस साल बाद 1969 में यह लैप्स हो गया। राष्ट्रीय एकता परिषद की सिफारिश पर एक समिति गठित की गई थी। इस समिति को देश की एकता व अखण्डता की सुरक्षा के हित में अपने संविधान में प्रदत्त नागरिक स्वतंत्रता के अधिकारों पर यथोचित बंदिशें थोपने की जांच सौंपी गई। समिति की सिफारिशों को स्वीकार  कर संसद ने 1963  में भारत के संविधान में 16वां संशोधन किया। इस संशोधन के तहत बोलने और विचार व्यक्त करने की स्वतंता, बिना हथियार शांतिपूर्ण तरीके से किसी स्थान पर इकटे होने का अधिकार और एसोसिएशन व यूनियन बनाने के अधिकार पर यथोचित बंदिश लगाने की इजाजत दी गई है।

अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद ने नए अपराधों को जन्म दिया है, जिनसे निपटने के लिए नई प्रक्रिया और नए दण्ड प्रावधानों की जरूरत है। अपने देश में होने वाले आतंककारी अपराध वैश्विक प्रकृति के हैं। आतंककारियों की भर्ती, उन्हें हथियार, गोला-बारूद व विस्फोटक सामग्री उपलब्ध कराना, आतंककारी कार्रवाई की साजिश रचना, उसके लिए आर्थिक मदद देने का काम विदेश में बैठे सरकारी और गैरसरकारी तत्वों द्वारा किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र ने खुद इसे स्वीकार किया है और सुरक्षा परिषद ने ग्यारह प्रस्ताव पारित किए हैं, जिनमें सदस्य देशों के लिए आतंककारी वारदातों से निपटने के विशेष कानून बनाना लाजिमी किया गया है। दुनिया भर में यह स्वीकार किया जाता है कि बिना विशेष कानून बनाए आतंकवाद की चुनौती से निपटा नहीं जा सकता। यह सही है कि विशेष कानून के प्रावधानों को ईमानदारी से और बेहद सतर्कता के साथ लागू करना चाहिए। वैसे तो यह बात हर कानून और सरकारी आदेश के लिए लागू होती है।

सचाई और निष्कपटता ही सुशासन मापने के मानक हैं और उनमें कोई अपवाद नहीं होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने के लिए दुनिया के सभी देशों में जो कानून बन रहे हैं, उनके औचित्य पर बहस करना निरर्थक लगता है।

 भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के 1975 बैच के अधिकारी एस. सी. सिन्हा को बुधवार को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का प्रमुख नियुक्त किया गया।
सिन्हा ने आर. वी. राजू का स्थान लिया। राजू पिछले महीने सेवानिवृत्त हुए थे।
गृह मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया, "सिन्हा को एनआईए का महानिदेशक नियुक्त किया गया है।"
छप्पन वर्षीय सिन्हा इससे पहले केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के विशेष निदेशक थे


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