भारत में लोगों को आपदासे बचाना या तत्काल राहत देना किसकी जिम्मेदारी है?..हमें नहीं मालूम! हमारी छोड़िए..पांच दशकों से सरकार भी इसी यक्ष प्रश्न से जूझ रही है। दरअसल आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी आपदा यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की जिम्मेदारी अनेक की है और किसी एक की नहीं।
इस देश में जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान से जूझ रहे होते हैं, तब दिल्ली में फाइलें सवाल पूछ रही होती हैं कि आपदा प्रबंधन किसका दायित्व है? कैबिनेट सचिवालय? जो हर मर्ज की दवा है। गृह मंत्रालय? जिसके पास दर्जनों दर्द हैं। प्रदेश का मुख्यमंत्री? जो केंद्र के भरोसे है। या फिर नवगठित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण? जिसे अभी तक सिर्फ ज्ञान देने और विज्ञापन करने का काम मिला है। एक प्राधिकरण सिर्फ 65 करोड़ रुपये के सालाना बजट में कर भी क्या सकता है। ध्यान रखिए कि इस प्राधिकरण के मुखिया खुद प्रधानमंत्री हैं।
जिस देश में हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें लील जाती हो, पिछले 270 वर्षो में जिस भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस मुल्क की 59 फीसदी जमीन कभी भी थरथरा सकती हो और पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों, वहां आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है।
सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है। भारत काआपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है। आपदा प्रबंधनका एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथ में है तो दूसरा गृह मंत्रालय, तीसरा राज्यों, चौथाराष्ट्रीय आपदा प्रबंधन या फिर पांचवां सेना के। समझना मुश्किल नहीं है कि इस तंत्र में जिम्मेदारी टालने के अलावा और क्या हो सकता है। गृह मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी का यह कहना, 'आपदा प्रबंधन तंत्र की संरचना ही अपने आप में आपदा है। प्रकृति के कहर से तो हम जूझ नहीं पा रहे, अगर मानवजनित आपदाएं मसलन जैविक या आणविक हमला हो जाए तो फिर सब कुछ भगवान भरोसे ही होगा..', भी यही जाहिर करता है।
उल्लेखनीय है कि सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया था, उसका मकसद और कार्य क्या है यही अभी तय नहीं हो सका है। सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति का कारण बनने वाली आपदाओं से जूझने के लिए इसे साल में 65 करोड़ रुपये मिलते हैं और काम है लोगों को आपदाओं से बचने के लिए तैयार करना। पर बुनियादी सवाल यह है कि आपदा आने के बाद लोगों को बचाए कौन? यकीन मानिए कि जैसा तंत्र है उसमें लोग भगवान भरोसे ही बचते हैं।
भारत में आपदा की कीमत
बाढ़: हर पांच साल में 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें
तूफान: पिछले 270 वर्षो में भारतीय उप महाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली, छह लाख जानें गई
भूकंप: मुल्क की 59 फीसदी जमीन पर कभी भी भूकंप का खतरा। पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में 24 हजार से ज्यादा लोगों की मौत
आपदा प्रबंधन का हाल
जिम्मेदारी: संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू हुई, लेकिन तय नहीं हो सका कि किसके हाथ है प्रबंधन की कमान
यक्ष प्रश्न: हर कहर के बाद जिम्मेदारी के यक्ष प्रश्न में उलझ जाता है तंत्र
रकम: आपदाओं के चलते सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति होती है और इनसे जूझने के लिए आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को दिए जाते हैं महज 65 करोड़।
इन सबों के बीच हमें गुजरात से आपदा प्रबंधन सीखना चाहिए जहां बीस मीटर की गहराई में दबे इंसान की धड़कन सुनने वाला यंत्र, गोताखोरों को लगातार 12 घंटे तक आक्सीजन देने वाला ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च कैमरा, आधुनिक इन्फेलेटेबल बोट, हाई वाल्यूम वाटर पंपिंग..। आप सोच रहे होंगे कि यह किसी विकसित देश के राहत दल की तकनीकी क्षमता का ब्यौरा है। जी नहीं! यह और ऐसी तमाम क्षमताएं व विशेषज्ञताएं इसी देश के एक राज्य, गुजरात में मौजूद हैं और इन्हीं के बूते आपदाप्रबंधन के मामले में गुजरात विकसित देशों से मुकाबले की स्थिति में आ गया है।
सोलह सौ किलोमीटर से अधिक के समुद्री किनारे तथा भूकंप के मामले में सक्रिय अफगानिस्तान से प्लेट जुड़ा होने के कारण गुजरात पर हमेशा आपदाओं का खतरा बना रहता है। लेकिन गुजरात ने आपत्ति को अवसर में बदलते हुए आपदा प्रबंधन में एक अनोखी दक्षता हासिल की है। आज गुजरात की यह विशेषज्ञता व उपकरण बिहार के बाढ़ पीड़ितों की जान बचा रहे हैं। मुख्य फायर आफिसर एम.एफ. दस्तूर बताते है कि इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम उनकी आपदा टीम की धड़कन है। यह उपकरण जमीन के नीचे बीस मीटर की गहराई में दबे किसी इसान के दिल की धड़कन तक सुन लेता है। मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार 12 घटे (आम ब्रीदिंग सिस्टम की क्षमता 45 मिनट तक आक्सीजन देने की है) तक आक्सीजन उपलब्ध कराने वाला अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेटस भी सरकार के पास हैं।
यहां का आपदा प्रबंधन तंत्र आधुनिक मास्क, इन्फ्लेटेबल बोट, हाई वाल्यूम पंपिंग यूनिट आदि आधुनिक उपकरणों से लैस है। यहां आपदा प्रबंधन दल के पास नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट भी है, जो मजबूत छत को फोड़ कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है। सरकार ने अग्निकांड से निपटने के लिए बड़ी संख्या में अल्ट्रा हाई प्रेशर फाइटिग सिस्टम भी खरीदे हैं। आम तौर पर आग बुझाने में किसी अन्य उपकरण से जितना पानी लगता है, यह सिस्टम उससे 15 गुना कम पानी में काम कर देता है। इसे अहमदाबाद के दाणीलीमड़ा मुख्य फायर स्टेशन ने डिजाइन किया है। यह आग पर पानी की एक चादर सी बिछा कर गर्मी सोख लेता है।
अमेरिका के सर्च कैमरे तथा स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे भी सरकार ने अपनी राहत और बचाव टीमों को दिए हैं। ये उपकरण जमीन के दस फीट नीचे तथा 770 फीट गहरे पानी में भी तस्वीरे उतार कर वहां फंसे व्यक्ति का सटीक विवरण देते हैं। अमरीका की लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में या ऊंची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन के जरिए रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है। राज्य की एम्बुलेंस सेवा 108 ने तो गंभीर वक्त पर बहुत अच्छे परिणाम दिए है। अब गुजरात में कहीं भी पंद्रह मिनट में एम्बुलेंस सेवा प्राप्त की जा सकती है। उधर सासद हरिन पाठक कहते हैं कि अमेरिका भले वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का मलबा तीन साल तक नहीं हटा सका, लेकिन गुजरात ने महज एक वर्ष के भीतर भूकंप की विनाशलीला का कोई चिह्न नहीं रहने दिया.
वर्तमान में आपदा प्रबन्धन का सरकारी तंत्र देखें ता कैबिनेट सचिव, गृहमंत्रालय, राज्यों में मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन विभाग और सेना इस तंत्र का हिस्सा हैं। यह भी सच है कि हमारे देश में आपदा प्रबन्धन की स्थिति ज्यादा ही लचर है। हमारे आपदा प्रबन्धन की कमजोर कड़ी लगभग हर आपदा में ढीली दिखी, लकिन हमने उसे मजबूत करन का प्रयास नहीं किया। मीडिया की भाषा में यह ‘प्रशासनिक लापरवाही’ अथवा न्यायपालिका की भाषा में ‘आपराधिक निष्क्रियता’ है। प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है जागरूकता और प्रभावित क्षेत्रा में तत्काल राहत एजेन्सी की पहुंच। यदि लोगों में आपदा की जागरूकता नहीं है तो तबाही भीषण होगी और राहत में दिक्कतें आएंगी। आपदा सम्भावित क्षेत्र में तो लोगों को बचाव की बुनियादी जानकारी देकर भी आपदा से होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है। आपदा प्रबन्धन के बाकी तत्वों में ठीक नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, ईमानदार एवं प्रभावी नेतृत्व, समन्वय आदि काफी महत्वपूर्ण हैं। हमारे देश में व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहां सब-एक दूसरे पर जिम्मेवारी डालते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन 5 से 10 हजार करोड़ की आर्थिक क्षति तो प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से उठाते हैं लकिन इससे जूझन के लिये आपदा प्रबन्धन पर हमारा बजट महज 65 करोड़ रुपये है। इस धनराशि में अधिकांश प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाता है। प्रशिक्षण की अभी तो तैयारी भी नहीं है। वर्ष 2005 में आपदा प्रबन्धन अधिनियम संसद ने पारित कर दिया है। इसके बाद से ही राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है। प्राधिकरण के सदस्य के. एम़ सिंह कहते हैं, ‘‘महज तीन साल में ही हमसे ज्यादा अपेक्षा क्यों रखते हैं? वक्त दीजिये हम एक प्रभावी आपदा प्रबन्धन उपलब्ध कराएंगे।’’ बिहार में अभी हुई भीषण तबाही का आकलन आसान नहीं है, लकिन अनुमान है कि क्षति 5 से 10 हजार करोड़ के बीच होगी। 600 प्रभावित गांवों में लगभग 350 गांव तो पूरी तरह डूब गए हैं। प्रशासनिक विफलता का नमूना यह है कि प्रभावित क्षेत्र में अधिकारी यही कहते पाए गए कि, ‘पहले हम बचेंगे तभी तो तुम लोगों को बचाएंगे?’ बिहार की इस बाढ़ ने सरकारी तंत्र, राहत एजेन्सी, राहत योजना सबको धोकर रख दिया है। कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने राहत कार्य का संचालन अपने हाथों में लिया है लकिन समन्वय के अभाव में राहत सामग्री का सिलसिलेवार वितरण नहीं हो पा रहा है। एक कन्ट्रोल रूम बना कर एनजीओ और बिहार सरकार समन्वित सूचना प्रणाली के जरिये राहत कार्य व्यवस्था को और बेहतर व मजबूत बना सकते हैं। गुजरात भूकम्प के बाद वहां विकसित प्रभावी आपदा प्रबन्धन तंत्र एक मिसाल है। इस मॉडल को अन्य राज्य सरकारें अपना सकती हैं। इस समय गुजरात आपदा प्रबन्धन विभाग को विश्वस्तरीय आपदा प्रबन्ध्न संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि ऐसा है, तो अन्य राज्य सरकारों को भी अपना आपदा प्रबन्धन तंत्र मजबूत और प्रभावी बनाना चाहिए। बाढ़ प्रभावित इलाके में स्थानीय मदद से प्रत्येक गांव या दो-तीन गांवों पर एक आपदा राहत केन्द्र की स्थापना कर वहां दो-तीन महीन का अनाज, पर्याप्त साधन, जरूरी दवाएं, पशुओं का चारा, नाव, तारपोलीन व अन्य जरूरी चीजों का बाढ़ से पूर्व ही इन्तजाम सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
वर्तमान में आपदा प्रबन्धन का सरकारी तंत्र देखें ता कैबिनेट सचिव, गृहमंत्रालय, राज्यों में मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन विभाग और सेना इस तंत्र का हिस्सा हैं। यह भी सच है कि हमारे देश में आपदा प्रबन्धन की स्थिति ज्यादा ही लचर है। हमारे आपदा प्रबन्धन की कमजोर कड़ी लगभग हर आपदा में ढीली दिखी, लकिन हमने उसे मजबूत करन का प्रयास नहीं किया। मीडिया की भाषा में यह ‘प्रशासनिक लापरवाही’ अथवा न्यायपालिका की भाषा में ‘आपराधिक निष्क्रियता’ है। प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है जागरूकता और प्रभावित क्षेत्रा में तत्काल राहत एजेन्सी की पहुंच। यदि लोगों में आपदा की जागरूकता नहीं है तो तबाही भीषण होगी और राहत में दिक्कतें आएंगी। आपदा सम्भावित क्षेत्र में तो लोगों को बचाव की बुनियादी जानकारी देकर भी आपदा से होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है। आपदा प्रबन्धन के बाकी तत्वों में ठीक नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, ईमानदार एवं प्रभावी नेतृत्व, समन्वय आदि काफी महत्वपूर्ण हैं। हमारे देश में व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहां सब-एक दूसरे पर जिम्मेवारी डालते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन 5 से 10 हजार करोड़ की आर्थिक क्षति तो प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से उठाते हैं लकिन इससे जूझन के लिये आपदा प्रबन्धन पर हमारा बजट महज 65 करोड़ रुपये है। इस धनराशि में अधिकांश प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाता है। प्रशिक्षण की अभी तो तैयारी भी नहीं है। वर्ष 2005 में आपदा प्रबन्धन अधिनियम संसद ने पारित कर दिया है। इसके बाद से ही राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है। प्राधिकरण के सदस्य के. एम़ सिंह कहते हैं, ‘‘महज तीन साल में ही हमसे ज्यादा अपेक्षा क्यों रखते हैं? वक्त दीजिये हम एक प्रभावी आपदा प्रबन्धन उपलब्ध कराएंगे।’’ बिहार में अभी हुई भीषण तबाही का आकलन आसान नहीं है, लकिन अनुमान है कि क्षति 5 से 10 हजार करोड़ के बीच होगी। 600 प्रभावित गांवों में लगभग 350 गांव तो पूरी तरह डूब गए हैं। प्रशासनिक विफलता का नमूना यह है कि प्रभावित क्षेत्र में अधिकारी यही कहते पाए गए कि, ‘पहले हम बचेंगे तभी तो तुम लोगों को बचाएंगे?’ बिहार की इस बाढ़ ने सरकारी तंत्र, राहत एजेन्सी, राहत योजना सबको धोकर रख दिया है। कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने राहत कार्य का संचालन अपने हाथों में लिया है लकिन समन्वय के अभाव में राहत सामग्री का सिलसिलेवार वितरण नहीं हो पा रहा है। एक कन्ट्रोल रूम बना कर एनजीओ और बिहार सरकार समन्वित सूचना प्रणाली के जरिये राहत कार्य व्यवस्था को और बेहतर व मजबूत बना सकते हैं। गुजरात भूकम्प के बाद वहां विकसित प्रभावी आपदा प्रबन्धन तंत्र एक मिसाल है। इस मॉडल को अन्य राज्य सरकारें अपना सकती हैं। इस समय गुजरात आपदा प्रबन्धन विभाग को विश्वस्तरीय आपदा प्रबन्ध्न संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि ऐसा है, तो अन्य राज्य सरकारों को भी अपना आपदा प्रबन्धन तंत्र मजबूत और प्रभावी बनाना चाहिए। बाढ़ प्रभावित इलाके में स्थानीय मदद से प्रत्येक गांव या दो-तीन गांवों पर एक आपदा राहत केन्द्र की स्थापना कर वहां दो-तीन महीन का अनाज, पर्याप्त साधन, जरूरी दवाएं, पशुओं का चारा, नाव, तारपोलीन व अन्य जरूरी चीजों का बाढ़ से पूर्व ही इन्तजाम सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
बहुत शानदार लेख..
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