Wednesday, April 28, 2010

आधार में धर्म या जाति का जिक्र नहीं

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देश के सभी नागरिकों को अलग पहचान देने की परियोजना, आधार में किसी भी व्यक्ति के धर्म और जाति का उल्लेख नहीं होगा। इसमें व्यक्ति को उसकी उंगलियों के निशान और आंख की पुतलियों के स्वरूप से पहचाना जाएगा। इस परियोजना की संचालक यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) के चेयरमैन नंदन निलेकणी के अनुसार उनकी संस्था देशवासियों के लिए अलग नंबर जारी करेगी, कार्ड नहीं। यह नंबर पूरी जिंदगी के लिए होगा। इसमें व्यक्ति के नाम, जन्मदिन व जन्म स्थान जैसी डेमोग्राफिक जानकारियों के साथ उंगलियों के निशान व पुतलियों की बुनावट जैसी बायोमेट्रिक सूचनाएं होंगी। लेकिन इसमें जाति या धर्म जैसी जानकारियां नहीं होंगी। बच्चों या नाबालिग विद्यार्थियों को उनके अभिभावक की पहचान से जोड़ा जाएगा। 15 साल उम्र तक आंखों की पुतलियों के आकार को आधार बनाया जाएगा क्योंकि उंगलियों के निशान तो वयस्क होने पर बदल जाते हैं।
नंदन निलेकणी ने सितंबर 2009 में पहली बार इस परियोजना का खाका पेश करते समय ही साफ कर दिया था कि इसमें व्यक्ति के जाति या धर्म के लिए कोई कॉलम नहीं होगा। सोमवार को दिल्ली में एक सम्मेलन में निलेकणी ने बताया कि अलग पहचान के पहले नंबर अगस्त 2010 से फरवरी 2011 के बीच जारी कर दिए जाएंगे और चार साल के भीतर 60 करोड़ भारतीयों को ये नंबर दे देने का लक्ष्य है। नंबरों का पूरा डाटाबेस ऑनलाइन होगा और व्यक्ति की पहचान को देश में कहीं भी जाने पर पुष्ट किया जा सकेगा।
आधार नाम की इस परियोजना का मकसद राष्ट्रीय सुरक्षा के कहीं ज्यादा सरकार की सामाजिक योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना है। यही वजह है कि आगे से राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) के हर कार्ड पर यूनीक आईडी नंबर दर्ज रहेगा।
यूआईडीएआई सारे देशवासियों को अलग पहचान देने के इस काम में राज्य सरकारों, केंद्रीय मंत्रालयों, बीमा कंपनियां और बैंकों की मदद ले रही है। इसमें राज्य सरकारों के शिक्षा, पंचायत व खाद्य आपूर्ति जैसे विभाग भी सहयोग करेंगे। निलेकणी के मुताबिक यूनीक आईडी नंबर मांग के आधार पर दिए जाएंगे। अथॉरिटी की तरफ से इसके लिए कोई बाध्यता नहीं होगी। लेकिन बैंक, बीमा कंपनियां या सरकारी संस्थाएं अपने स्तर पर यह नंबर लेना अनिवार्य बना सकती हैं। इसका मकसद देश की गरीब आबादी को अलग पहचान देना है क्योंकि अमीरों के पास पैन कार्ड, पासपोर्ट या ड्राइविंग लाइसेंस पहले से हैं।

Monday, April 26, 2010

मोदी पर आरोप

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ललित मोदी को पद से हटाने के लिए बीसीसीआई ने अपनी चार्जशीट में मोदी पर 22 आरोप लगाए हैं, जिनमें प्रमुख आरोप यह हैं.
1. 2009 में दुबारा नेगोशिएशन के वक्त मल्टी स्क्रीन मीडिया द्वारा दी गई 425 करोड़ की फैसिलिटेशन फी में उनके रोल को लेकर संशय। जबकि मल्टीस्क्रीन मीडिया का कहना है कि आईपीएल 2 के लिए यह फीस मॉरिशियस के वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप को दी गई, ताकि वह यह अधिकार आईपीएल 2 के लिए स्क्रीनमीडिया को दे दे।

2. आईपीएल के कई टीमों में मोदी की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी का आरोप। उनके साले सुरेश चेलाराम का राजस्थान रॉयल्स में और उनके दामाद गौरव बर्मन का किंग्स इलेवन पंजाब में हिस्सा है। कोलकाता नाइट राइडर्स में भी मोदी का कुछ हिस्से होने का आरोप है।
3. 7 मार्च 2010 को आईपीएल बोली के लिए ऐसी शर्तें रखने का आरोप, जिन्हें अदानी ग्रुप और विडियोकॉन ग्रुप ही पूरी कर सकें। बाद में इन टर्म्स या शर्तों को बीसीसीआई प्रेजिडेंट शशांक मनोहर ने खत्म किया। 21 मार्च को हुई नीलामी में इन कंपनियों के कागजात रहस्यमय ढंग से गायब होने का भी आरोप।
4. कोच्चि टीम के 300 मिलियन डॉलर से नीचे की बोली लगाने की सलाह देने का आरोप, ताकि वह टीम खरीद न सकें। साथ ही कोच्चि मालिकों के 50 मिलियन डॉलर रकम की पेशकश देने का आरोप ताकि वह नीलामी प्रक्रिया से हट जाए।

5. दूसरी कंपनियों और टाइटल्स के नाम से आईपीएल में पैसों के लेन-देन का आरोप।

6. गौरव बर्मन को आईपीएल वेबसाइट का कॉन्ट्रैक्ट देने में अनियमताएं बरतने का आरोप। आईपीएल और चैंपियन लीग के डिजिटल और मोबाइल राइट पाने वाली कंपनी ऐलिफेंट कैपिटल इंवेस्टमेंट में भी गौरव बर्मन की अहम भूमिका होने का आरोप।

7. राजस्थान बोर्ड ऑफ इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के नियमों को तोड़ मरोड़ कर नियमों के अनदेखी का आरोप। राजस्थान में वसुंधरा राजे के कार्यकाल के दौरान अवैध रूप से संपत्तियां खरीदने का आरोप।

8. आईटी विभाग के डॉजियर के अनुसार आईपीएल 2 को दौरान मैचों में सट्टेबाजी का आरोप।

9. आईपीएल की इवेंट मैनेजमेंट कंपनी इंटरनैशनल मार्केटिंग ग्रुप भी आईटी विभाग के शक के घेर में है। आरोप है कि तय मानकों से हटकर कंपनी को 10 फीसदी कमिशन देने का वायदा करना।

10. आपीएल के पहले सेशन 2008 में टीमें खरीदने में असफल रहने वाली कंपनियों ने भी मोदी पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि टीम देने में निष्पक्षता नहीं बरती गई।

Thursday, April 15, 2010

अनोखी पहल

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 दंतेवाड़ा में सुरक्षाबलों के त्रासद नरसंहार की प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी और मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बयान हमारे संविधान और लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के लिए आशा की किरण जगाते हैं। दोनों ही पार्टियां असाधारण प्रतिरोध और राष्ट्रवादी विचारों के स्तर तक उठी हैं। सुरक्षा विफलता पर एक असाधारण किंतु सराहनीय प्रतिक्रिया में भाजपा ने घोषणा की कि वह पी. चिदंबरम का इस्तीफा नहीं चाहती, क्योंकि अगर वह हटते हैं तो इसका मतलब माओवादियों की जीत माना जाएगा। भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि एक गृहमंत्री के रूप में पी. चिदंबरम पर राष्ट्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी है इसलिए वह एक घायल सिपाही की तरह पीठ दिखाकर नहीं भाग सकते। यद्यपि सरकार हर मोर्चे पर विफल हो गई है फिर भी यह सेनापति को हटाए जाने का सही समय नहीं है। भाजपा ने माओवादियों के खिलाफ जंग में सरकार को पूरा समर्थन जताया। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी इन हालात में गृहमंत्री से पद न छोड़ने की अपील की। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी एक सच्चे राजनेता की तरह प्रतिक्रिया जताई। दंतेवाड़ा की घटना से महज एक सप्ताह पहले पश्चिम बंगाल में माओवाद प्रभावित इलाके के दौरे के दौरान चिदंबरम ने मुख्यमंत्री और माकपा को उकसाते हुए पत्रकारों से कहा था कि मुख्यमंत्री को उपद्रव रोकने चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया में भट्टाचार्य ने गृहमंत्री को जबान संभालकर बात करने की नसीहत दी थी, किंतु दंतेवाड़ा के बाद भट्टाचार्य ने मामले को तूल नहीं दिया। उन्होंने कहा, यह किसी को या एक-दूसरे को दोषी ठहराने का समय नहीं है। यह एक साथ मिलजुलकर काम करने का समय है। महत्वपूर्ण यह है कि भट्टाचार्य ने दंतेवाड़ा के लिए चिदंबरम को दोषी नहीं ठहराया। उन्होंने इसे सामूहिक जिम्मेदारी बताया और कहा कि जब तक हम मिलजुलकर काम नहीं करेंगे तब तक माओवादी हिंसा से निपटा नहीं जा सकता। यह भारतीय राजनीति में बिल्कुल अनोखी पहल है। अबसे पहले इस तरह की घटना के लिए विपक्षी दल गृहमंत्री को पद से हटाने की मांग करते रहे हैं। भाजपा और माकपा दोनों ने यह तय किया है कि वे तुच्छ राजनीतिक लाभ हासिल नहीं करेंगे, बल्कि समग्र राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए जिम्मेदारी निभाएंगे। विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित सेकेंड एडमिनिस्ट्रेटिव रिफा‌र्म्स कमीशन (एआरसी) की अनुशंसाओं के अनुरूप है जिसमें नक्सलवाद संबंधी समूचे मामले को पब्लिक आर्डर और कंोबेटिंग टेररिज्म नामक रिपोर्टों में पेश किया गया है। इसमें कहा गया है कि उलझी हुई समस्याओं और परस्पर विरोधी विचारों का तार्किक हल तलाशने के लिए लोकतांत्रिक परिपक्वता को समय और संयम से काम लेते हुए संजीदा प्रयास करने होंगे। इस प्रकार इसमें उम्मीद जताई गई है कि देश का राजनीतिक नेतृत्व सार्वजनिक व्यवस्था कायम करने के लिए राजनीतिक आचरण में एकजुटता का प्रदर्शन करेगा। कंोबेटिंग टेररिज्म रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि माओवादियों के हथियारों के जखीरे में सेल्फ लोडिंग, इंसास और एके श्रृंखला की राइफलें हैं। वे राकेट लांचर बनाने में सक्षम हैं। माओवाद का खतरा इसलिए और बढ़ गया है, क्योंकि उन्होंने डेटोनेटिंग इम्प्रूवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसिज (ईआईडी) बनाने में दक्षता हासिल कर ली है। कुछ घटनाएं सुरक्षाबलों पर माओवादियों के हमलों की घातकता रेखांकित करती हैं। सितंबर 2005 में दंतेवाड़ा में एंटीलैंडमाइन वाहन को उड़ाकर 24 सीआरपीएफ जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया था। उसी साल बिहार के मुंगेर में बारूदी सुरंग विस्फोट में पुलिस प्रमुख की हत्या कर दी गई। ऐसे ही एक हमले में आंध्र प्रदेश के प्रकाशम जिले में पुलिस प्रमुख बचे थे। इसके अलावा आंध्र प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और जनार्दन रेड्डी भी बम धमाकों में बाल-बाल बचे। आयोग ने कहा कि इन तमाम घटनाओं से पता चलता है कि माओवादियों ने उच्च सुरक्षा प्राप्त लोगों पर भी सुनियोजित हमलों में ईआईडी का इस्तेमाल किया है। आयोग के अनुसार माओवादी हर साल करीब सौ बारूदी सुरंगों में विस्फोट करते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में केंद्रीय और राज्य सुरक्षाकर्मियों को जान गंवानी पड़ती है। माओवादियों की इन तमाम आतंकी घटनाओं पर विस्तृत चर्चा करते हुए आयोग ने कहा कि ये सब घटनाएं केंद्रीय और प्रादेशिक पुलिस और अन्य सुरक्षाबलों के प्रशिक्षण और आतंक विरोधी अभियानों में नेतृत्व नियोजन की एक समग्र नीति बनाने की तात्कालिक आवश्यकता को रेखांकित करती है, जिसमें सुधार और विकास भी शामिल हैं। इसके अलावा आयोग ने आतंकवाद से निपटने के लिए जरूरी कानूनी ढांचे में भी कुछ मूल्यवान सुझाव दिए हैं, क्योंकि दूसरे एआरसी का गठन संप्रग सरकार ने किया था इसलिए यह सरकार पर है कि वह आयोग की राय को उचित महत्व प्रदान करे। मुंबई हमले के बाद आतंकवाद को आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर राजनीतिक सर्वसम्मति बनाने का देश को एक अवसर मिला था, किंतु कुछ शुरुआती दिक्कतों के बाद सरकार भविष्य में आतंकवादी हमलों को रोकने के विषय में बनाई गई नीतियों पर विपक्षी दलों के साथ जबानी जंग में उतर पड़ी। दंतेवाड़ा नरसंहार में इतनी बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों की मौत ने देश को हिला दिया है किंतु साथ ही आतंकवाद और सशस्त्र विद्रोह से निपटने के लिए सर्वसम्मति बनाने का एक और अवसर सरकार को प्रदान किया है। संप्रग सरकार को दोनों हाथों से इस अवसर को लपक लेना चाहिए और जनता तथा लोकतांत्रिक जीवन पद्धति को आघात पहुंचाने वाले तमाम मुद्दों पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति बनाने का प्रयास करना चाहिए। उम्मीद की जा सकती है कि इस बार सरकार वोट बैंक या झूठी प्रतिष्ठा की चिंता से मुक्त होकर कार्य करेगी और हिंसा को तनिक भी बर्दाश्त न करने की नीति पर चलेगी। अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है तो वह लोकतांत्रिक राजनीति में जनता को भरोसा कायम कर पाएगी और प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति की उम्मीद जगाएगी। 
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गुरुवार को जब श्रीहरिकोटा से एक जीएसएलवी-डी3 रॉकेट जीसैट-4 सैटलाइट को लेकर उड़ान भरेगा और नीले आसमान में गुम हो जाएगा, तो भारत एक ऐसे 
सफर पर चल पड़ेगा, जिसकी कामयाबी दुनिया भर के लिए मिसाल बन जाएगी। हम उन चंद देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे, जिनका स्पेस पर राज चलता है। बड़ा धमाका जीसैट-4 2220 किलो का कम्युनिकेशन सैटलाइट है। यह 35,786 किलोमीटर दूर जियो सिंक्रोनस (स्टेटिक) ऑर्बिट में जगह बनाएगा। ऐसे ऑर्बिट में दो टन से भारी सैटलाइट पहुंचाने वाले चुनींदा देशों में भारत शामिल हो जाएगा। सैटलाइट लॉन्च के कारोबार में भारत सबसे पसंदीदा देश बन सकता है।

जियो सिंक्रोनस: सैटलाइट का प्लेसमेंट दो तरीके से हो सकता है- सन सिंक्रोनस और जियो सिंक्रोनस। सन सिंक्रोनस सैटलाइट्स सूरज की तरह धरती का चक्कर लगाते हैं और धरती पर किसी भी पॉइंट से 24 घंटे में एक बार गुजरते हैं। रिमोट सेंसिंग में ऐसे सैटलाइट्स इस्तेमाल होते हैं। उसके उलट जियो सिंक्रोनस सैटलाइट्स धरती के साथ-साथ घूमते हैं और इसलिए लगातार एक ही जगह टिके नजर आते हैं। कम्युनिकेशन, जासूसी और टीवी ब्रॉडकास्टिंग के लिए इनका इस्तेमाल होता है। जीसैट-4 इसरो का 10वां जियो सिंक्रोनस सैटलाइट्स है।


तकनीकी कमाल सबसे बड़ी बात यह कि पहली बार भारत खुद अपना क्रायोजेनिक इंजन इस्तेमाल करने जा रहा है। दुनिया के सिर्फ पांच देशों- अमेरिका, रूस, चीन, जापान और फ्रांस के पास यह तकनीक है।

क्या है क्रायोजेनिक तकनीक: क्रायो का मतलब है बहुत ठंडा। इस तकनीक में बेहद कम टेम्परेचर पर लिक्विड में तब्दील की गई हाइड्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है। गर्म होने पर यह गैस तेजी से फैलती है और रॉकेट को जबर्दस्त बूस्ट देती है। सॉलिड फ्यूल से यह कई गुना ताकतवर होती है। लंबी दूरी के और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक जरूरी है। रॉकेट टैक्नॉलजी में यह सबसे बड़ा कदम है।

लंबा सफर: पहले भारत को रूस से यह तकनीक मिल रही थी। 1998 में पोखरण एटमी टेस्ट के बाद अमेरिका ने भारत पर पाबंदी लगवा दी और रूस का रास्ता बंद हो गया। वैसे भारत उससे पहले से इस तकनीक पर काम कर रहा था। आखिरकार इसे आजमाने का मौका आ गया है।

अपना गगनः इस लॉन्च के साथ इंडिया का एक और सपना हकीकत में बदलने लगेगा। वह सपना है अमेरिकन जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) की तर्ज पर एक रीजनल पोजिशनिंग सिस्टम बनाने का, जिसका नाम गगन रखा गया है। गगन के तहत 4 सैटलाइट्स छोड़े जाएंगे और यह 2014 से काम करने लगेगा।

क्या है पोजिशनिंग सिस्टम: संसार में किसी भी चीज की लोकेशन जानने के लिए लोकेटिंग सिस्टम चाहिए, जो पूरी दुनिया के भौगोलिक इलाके को एक ग्रिड (आड़ी और तिरछी रेखाओं के नेटवर्क) में देखे। यह काम सैटलाइट्स की सीरीज के जरिए किया जाता है। इसके बिना कम्युनिकेशन, ट्रैकिंग और ट्रैवल नामुमकिन है। इस कारोबार में जीपीएस का कब्जा है। यूरोप और रूस के बाद अब चीन भी इस सिस्टम पर काम कर रहा है।

Wednesday, April 14, 2010

एनपीटी पर मनमोहन ने दिखाया आइना

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वाशिंगटन अमेरिकी राजधानी में सोमवार से शुरू हुए दो दिवसीय परमाणु सुरक्षा सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नाभिकीय तस्करी को लेकर पाकिस्तान पर निशाना साधा। उन्होंने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जैसे भेदभाव वाले समझौते को भारत पर लादने की कोशिश में जुटे विश्व समुदाय को भी आइना दिखाने में कोई चूक नहीं की। पिछले पांच दशक में यहां पहली बार जुटे 47 राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में सिंह ने दो टूक अंदाज में खेद जता दिया कि वैश्विक परमाणु अप्रसार की व्यवस्था अपने मकसद में पूरी तरह नाकाम साबित हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति की पहल पर आयोजित परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में सिंह जब दुनिया के अहम मुल्कों के प्रमुखों से मुखातिब हुए तो उन्होंने नाभिकीय अनुशासन पर भारत की बेदाग छवि का ब्योरा पेश तो किया ही, साथ ही यह भी बता दिया कि परमाणु प्रसार रोकने की कोशिश बिना किसी भेदभाव के होनी चाहिए और इसका मकसद पूर्ण निरस्त्रीकरण का होना चाहिए। पाकिस्तान के ही संदर्भ में मनमोहन ने कहा कि परमाणु सुरक्षा का दायित्व सबसे पहले इसका भंडार रखने वाले मुल्क का ही है। इसके लिए जरूरी है कि वह मुल्क पूरी तरह जिम्मेदारी से पेश आए। परमाणु सुरक्षा को लेकर चिंता जताने दुनिया भर से जुटे तमाम नेताओं के समक्ष प्रधानमंत्री ने यह कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई कि परमाणु अप्रसार सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक व्यवस्था विफल हो चुकी है। फिर तत्काल पाक की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि कई देश गुपचुप तरीके से नाभिकीय हथियारों का जमावड़ा कर रहे हैं जो खासकर भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है। यही नहीं, परमाणु सामग्री की कालाबाजारी में पाक के संलिप्तता का मामला उठाने से भी मनमोहन नहीं चूके। उन्होंने कह दिया कि संवदेनशील परमाणु तकनीक आतंकियों के हाथ लगने से बचाने और नाभिकीय सामग्री की तस्करी को रोकने के लिए पूरे विश्व को एकजुट होना चाहिए। जाहिर है उनका इशारा चीन के साथ परमाणु सामग्री की कालाबाजारी की पाकिस्तानी कारस्तानी के उस खुलासे की ओर था जो खुद पाक के वैज्ञानिक एक्यू खान ने अपने खत में किया था। सिंह ने भारत की परमाणु ऊर्जा जरूरतों को भी रेखांकित करने का पूरा ख्याल रखा। मनमोहन को इस बात का पूरा ख्याल था कि सम्मेलन में मौजूद कई मुल्कों से भारत को परमाणु ऊर्जा को लेकर उम्मीदें हैं। कजाकिस्तान के राष्ट्रपति से तो उन्होंने अलग मुलाकात कर परमाणु करार को मूर्तरूप देने के लिए अंतिम औपचारिकता पूरी करने की दिशा में अहम बातचीत की। यही वजह है कि अपने भाषण में परमाणु मामले में भारत की अनुशासित पृष्ठभूमि का बखान किया

परमाणु शिखर सम्मेलन

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अमेरिका में 12 अप्रैल से शुरू हो रहे परमाणु शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति बराक ओबामा विश्व को परमाणु हथियारों से सुरक्षित बनाने की दिशा में संजीदा पहल करना चाहते हैं। पिछली छह अप्रैल को ही अमेरिका ने परमाणु दृष्टिकोण समीक्षा नामक नीति जारी की है, जो एटमी हथियारों के प्रयोग संबंधी अमेरिकी रुख में क्रांतिकारी बदलाव का परिचायक है। ओबामा ने कहा है कि वह इन हथियारों के प्रयोग की आवश्यकता को न्यूनतम कर देना चाहते हैं, यहां तक कि आत्मरक्षा की स्थिति में भी। फिर आठ अप्रैल को अमेरिका ने रूस के साथ सामरिक अस्त्र कटौती संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके तहत दोनों देश अपनी मिसाइलों, विमानों आदि पर तैनात परमाणु हथियारों की संख्या 2002 में हुई ऐसी ही संधि के स्तर से 30 प्रतिशत घटा देंगे। वाशिंगटन में होने वाला परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन इसी श्रृंखला की कड़ी है जिसका दायरा अपेक्षाकृत ज्यादा वैश्विक है। अब यह चर्चा और चिंता परमाणु हथियार संपन्न देशों तक ही सीमित नहीं है इसलिए शिखर सम्मेलन का कलेवर व्यापक रखा गया है और इसमें हिस्सा लेने वाले 47 नेता घोषित परमाणु शक्तियों के साथ-साथ, अघोषित किंतु ज्ञात परमाणु शक्तियों वाले हैं। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के लिए इसके अलग-अलग निहितार्थ हैं। भारत जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच अपनी जिम्मेदार परमाणु शक्ति की पारंपरिक भूमिका को रेखांकित करेगा, वहीं पाकिस्तान की कोशिश होगी कि वह परमाणु हथियारों के प्रसार में अपनी कुख्यात भूमिका से किसी तरह पल्ला झाड़ सके और भारत की ही तरह नागरिक परमाणु ऊर्जा समझौते के लिए अमेरिका पर दबाव डाल सके। चीन, जिसने भारत के साथ असैन्य परमाणु समझौते का अनेक मंचों पर परोक्ष विरोध किया था, वैसा ही दर्जा पाने की पाकिस्तानी महत्वाकांक्षा का समर्थन करेगा। इस संदर्भ में अमेरिका का मकसद कहीं अधिक व्यापक है। पाकिस्तान भले ही रणनीतिक कारणों की बदौलत अमेरिका की उद्दंड राष्ट्रों की सूची (ईरान, इराक और उत्तर कोरिया) में आने से बच गया हो, लेकिन परमाणु प्रसार की समस्या में सबसे बड़ा योगदान उसी का है। अब्दुल कदीर खान का नेटवर्क इस संवेदनशील तकनीक को उत्तर कोरिया और ईरान तक पहुंचा चुका है। उसके परमाणु हथियारों के अलकायदा, तालिबान और भारत-विरोधी आतंकवादी शक्तियों तक पहुंचने का खतरा भी कम गंभीर और कम वास्तविक नहीं है। मौजूदा परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में तीन मुद्दों पर ध्यान दिए जाने की संभावना है। परमाणु हथियारों को आतंकवादियों के हाथों से सुरक्षित रखने की व्यवस्था, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे देशों को ऐसे हथियार बनाने से रोकना (परमाणु अप्रसार) और पहले से परमाणु-शक्तियों को अपने हथियारों की संख्या घटाने के लिए तैयार करना। पहले परमाणु हथियारों की संख्या घटाने और फिर धीरे-धीरे इन्हें अप्रचलित बना देने की बराक ओबामा की योजना भले ही मौजूदा हालात में अविश्वसनीय और अति-महत्वाकांक्षी हो, फिर भी यह आशावाद सुखद है। न्यू अमेरिका फाउंडेशन के अस्त्र एवं सुरक्षा कार्यक्रम के निदेशक विलियम डी हारटंग ने चेतावनी दी है कि भले ही अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और इंग्लैंड ने 1992 के बाद से परमाणु हथियारों का परीक्षण नहीं किया है, लेकिन आज भी दुनिया में 27 हजार परमाणु बम मौजूद हैं। इनमें से 95 फीसदी अमेरिका और रूस के पास हैं। परमाणु शिखर सम्मेलन के सामने मौजूद चुनौतियां कई स्तरों पर होंगी- पाकिस्तान और चीन जैसे देशों को अनुशासित करना, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे परमाणु महत्वाकांक्षा रखने वाले देशों को एटम बम बनाने से रोकना, परमाणु हथियारों को सुरक्षित रखना और मौजूदा हजारों एटम बमों को सिलसिलेवार ढंग से कम करने वाली व्यवस्था बनाना। चुनौतियां बहुत मुश्किल है, लेकिन कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है। 
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अमेरिका में 12 अप्रैल से शुरू हो रहे परमाणु शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति बराक ओबामा विश्व को परमाणु हथियारों से सुरक्षित बनाने की दिशा में संजीदा पहल करना चाहते हैं। पिछली छह अप्रैल को ही अमेरिका ने परमाणु दृष्टिकोण समीक्षा नामक नीति जारी की है, जो एटमी हथियारों के प्रयोग संबंधी अमेरिकी रुख में क्रांतिकारी बदलाव का परिचायक है। ओबामा ने कहा है कि वह इन हथियारों के प्रयोग की आवश्यकता को न्यूनतम कर देना चाहते हैं, यहां तक कि आत्मरक्षा की स्थिति में भी। फिर आठ अप्रैल को अमेरिका ने रूस के साथ सामरिक अस्त्र कटौती संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके तहत दोनों देश अपनी मिसाइलों, विमानों आदि पर तैनात परमाणु हथियारों की संख्या 2002 में हुई ऐसी ही संधि के स्तर से 30 प्रतिशत घटा देंगे। वाशिंगटन में होने वाला परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन इसी श्रृंखला की कड़ी है जिसका दायरा अपेक्षाकृत ज्यादा वैश्विक है। अब यह चर्चा और चिंता परमाणु हथियार संपन्न देशों तक ही सीमित नहीं है इसलिए शिखर सम्मेलन का कलेवर व्यापक रखा गया है और इसमें हिस्सा लेने वाले 47 नेता घोषित परमाणु शक्तियों के साथ-साथ, अघोषित किंतु ज्ञात परमाणु शक्तियों वाले हैं। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के लिए इसके अलग-अलग निहितार्थ हैं। भारत जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच अपनी जिम्मेदार परमाणु शक्ति की पारंपरिक भूमिका को रेखांकित करेगा, वहीं पाकिस्तान की कोशिश होगी कि वह परमाणु हथियारों के प्रसार में अपनी कुख्यात भूमिका से किसी तरह पल्ला झाड़ सके और भारत की ही तरह नागरिक परमाणु ऊर्जा समझौते के लिए अमेरिका पर दबाव डाल सके। चीन, जिसने भारत के साथ असैन्य परमाणु समझौते का अनेक मंचों पर परोक्ष विरोध किया था, वैसा ही दर्जा पाने की पाकिस्तानी महत्वाकांक्षा का समर्थन करेगा। इस संदर्भ में अमेरिका का मकसद कहीं अधिक व्यापक है। पाकिस्तान भले ही रणनीतिक कारणों की बदौलत अमेरिका की उद्दंड राष्ट्रों की सूची (ईरान, इराक और उत्तर कोरिया) में आने से बच गया हो, लेकिन परमाणु प्रसार की समस्या में सबसे बड़ा योगदान उसी का है। अब्दुल कदीर खान का नेटवर्क इस संवेदनशील तकनीक को उत्तर कोरिया और ईरान तक पहुंचा चुका है। उसके परमाणु हथियारों के अलकायदा, तालिबान और भारत-विरोधी आतंकवादी शक्तियों तक पहुंचने का खतरा भी कम गंभीर और कम वास्तविक नहीं है। मौजूदा परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में तीन मुद्दों पर ध्यान दिए जाने की संभावना है। परमाणु हथियारों को आतंकवादियों के हाथों से सुरक्षित रखने की व्यवस्था, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे देशों को ऐसे हथियार बनाने से रोकना (परमाणु अप्रसार) और पहले से परमाणु-शक्तियों को अपने हथियारों की संख्या घटाने के लिए तैयार करना। पहले परमाणु हथियारों की संख्या घटाने और फिर धीरे-धीरे इन्हें अप्रचलित बना देने की बराक ओबामा की योजना भले ही मौजूदा हालात में अविश्वसनीय और अति-महत्वाकांक्षी हो, फिर भी यह आशावाद सुखद है। न्यू अमेरिका फाउंडेशन के अस्त्र एवं सुरक्षा कार्यक्रम के निदेशक विलियम डी हारटंग ने चेतावनी दी है कि भले ही अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और इंग्लैंड ने 1992 के बाद से परमाणु हथियारों का परीक्षण नहीं किया है, लेकिन आज भी दुनिया में 27 हजार परमाणु बम मौजूद हैं। इनमें से 95 फीसदी अमेरिका और रूस के पास हैं। परमाणु शिखर सम्मेलन के सामने मौजूद चुनौतियां कई स्तरों पर होंगी- पाकिस्तान और चीन जैसे देशों को अनुशासित करना, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे परमाणु महत्वाकांक्षा रखने वाले देशों को एटम बम बनाने से रोकना, परमाणु हथियारों को सुरक्षित रखना और मौजूदा हजारों एटम बमों को सिलसिलेवार ढंग से कम करने वाली व्यवस्था बनाना। चुनौतियां बहुत मुश्किल है, लेकिन कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है। 

Tuesday, April 13, 2010

न्यायपालिका की साख

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भ्रष्टाचार के आरोप में महाभियोग की प्रक्ति्रया झेल रहे कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पीडी दिनकरन ने सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम को आईना दिखा दिया है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की कमिटी की लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह ठुकरा दी। सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे और अपने पद के दुरुपयोग के आरोपी दिनकरन लंबे समय से न्यायिक कामकाज नहीं देख रहे हैं। वह सिर्फ कर्नाटक हाईकोर्ट का प्रशासनिक कामकाज संभाल रहे थे। दिनकरन के प्रशासनिक कामकाज संभालने पर उनके ही एक साथी जज ने अपनी नाराजगी का खुलेआम इजहार किया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम ने उन्हें लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी और उनकी जगह दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस मदन लोकुर को वहां का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। लेकिन दिनकरन द्वारा कालेजियम की इस सलाह को ठुकराने के बाद उनका तबादला सिक्किम हाईकोर्ट में कर दिया गया है। अगर हम कानूनी बारिकियों को देखें तो किसी भी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायमूर्ति लंबी छुट्टी पर जाने के कालेजियम की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन न्यायिक परंपरा के मुताबिक उच्च न्यायालय के जस्टिस कालेजियम की सलाह को आम तौर पर ठुकराते नहीं हैं। यहां सवाल उठता है कि अगर कोई न्यायाधीश एक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारी निभाने के लायक नहीं हैं तो वह दूसरे हाईकोर्ट में उन्ही जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकता है? इसके पहले भी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर आरोप लगे थे तो उन्हें कालेजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया था। मामला शांत होने पर उनका तबादला उत्तरांचल हाईकोर्ट कर दिया गया। इसी तरह जब जनवरी 2007 में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पीबी मजूमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बीजे सेठना पर बदसलूकी का आरोप लगाया था तो जस्टिस बीजे सेठना का तबादला सिक्किम और पीबी मजूमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था। हालांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। ये कुछ ऐसे उदाहरण है जो भारतीय न्यायिक प्रक्ति्रया में भ्रष्टाचार के मामलों को निबटने की कमियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायधीश देश की न्यायिक व्यवस्था का प्रशासनिक मुखिया होता है। वह जजों का तबादला तो कर सकता है, लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ और सिर्फ महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है। महाभियोग की प्रक्ति्रया बेहद जटिल है। जस्टिस रामास्वामी के मामले में पूरा देश इस जटिल प्रक्रिया को देख चुका है। जस्टिस दिनकरन के खिलाफ भी महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राज्यसभा के सभापति की मंजूरी के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज वीएस सिरपुकर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की कमेटी इस बारे में तथ्यों की पड़ताल करेगी। न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्ति्रया चली थी, लेकिन यह प्रस्ताव गिर गया था। दूसरी ओर हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट कालेजियम के क्रियाकलापों पर भी सवाल खड़े हुए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति एपी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति ना दिए जाने के कालेजियम के फैसले पर प्रश्नचिह्न लगा था। किसी एक न्यायाधीश के आचरण की वजह से अदालत की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो सवा सौ करोड़ लोगों के विश्वास को भी ठेस लगती है। जनता के इस विश्वास की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए। इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकती है जब हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्ति्रया पारदर्शी हो और उसका एक तय स्वरूप हो। इसके लिए सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी। सालों से ज्यूडिशियल स्टेंडर्ड एंड अकाउंटिबिलिटी बिल पर बहस चल रही है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। अब वक्त आ गया है कि इस बिल में अपेक्षित बदलाव करके संसद में पेश किया जाए और जल्द से जल्द कानून बनाकर न्यायपालिका की साख को बचाया जाए

नक्सली आतंक के पैरोकार

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नक्सली आतंक के पैरोकारों का दावा है कि नक्सली समस्या दो कारणों से पैदा हुई है। पूंजीपति-सामंती वर्ग व सूदखोर बनियों के शोषण के कारण आदिवासी हथियार उठाने को मजबूर हुए हैं। दूसरा, पुलिस और प्रशासन में सामंती वर्ग का प्रभुत्व होने के कारण आदिवासियों का उस स्तर पर भी शोषण होता है। यह तर्क नक्सली समस्या से त्रस्त छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जैसे अन्य दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में आधारहीन है। दंतेवाड़ा में सामंती वर्ग कभी रहा ही नहीं। नक्सली हिंसा से पहले मीलों तक न तो कोई पुलिस चौकी थी और न ही प्रशासनिक अमला वहां उपस्थित था। वास्तव में चीन-पाक गठजोड़ ने इसी निर्वात का लाभ उठाया और इस विशाल क्षेत्र (पुराने बस्तर जिले का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर था) में भारत विरोधी वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी कर ली। सुदूर आदिवासी अंचलों में प्रशासनिक अमले की दखलंदाजी को प्रारंभिक नीति-नियंताओं ने इसीलिए सीमित रखने की कोशिश की ताकि उनकी विशिष्ट पहचान और संस्कृति अक्षुण्ण बनी रह सके। किंतु इससे वे क्षेत्र मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह गए और इसी शून्य का फायदा उठाकर इन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक अलगाववादी भावना विकसित की गई। इस साजिश को पहचानने की आवश्यकता है। विकास से वंचित ग्रामीण इलाकों में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी तो वस्तुत: नक्सलियों के विस्तार का साधन बनी। गरीब व वंचितों का उत्थान नक्सलियों का लक्ष्य नहीं है। यदि यह सत्य होता तो सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास के लिए किए जा रहे  विकास कार्यो को बाधित क्यों किया जाता है? सड़कों को क्यों उड़ा दिया जाता है? नक्सलियों का उद्देश्य शुरू से ही रहा है कि विकास कार्यो को इन इलाकों में शुरू न होने दिया जाए। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच नक्सल प्रभावित लाल गलियारे में नक्सलियों ने तीन सौ विद्यालयों को बम धमाकों से उड़ा दिया। सन 2005 से 2007 के बीच नक्सली कैडर में बच्चों की बहाली में भी तेजी दर्ज की गई है। छोटी उम्र के बच्चों को शिक्षा से वंचित कर उन्हें बंदूक थमाने वाले नक्सली कैसा विकास चाहते हैं? दलित-वंचित के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जो हिंसक आंदोलन प्रारंभ हुआ था, वह आज फिरौती और अपहरण का दूसरा नाम है। एक अनुमान के अनुसार नक्सली साल में अठारह सौ करोड़ की उगाही करते हैं। विदेशी आकाओं से प्राप्त धन संसाधन और प्रशिक्षण के बल पर भारतीय सत्ता अधिष्ठान को उखाड़ फेंकना नक्सलियों का वास्तविक लक्ष्य है। नक्सलियों ने सन 2050 तक सत्ता पर कब्जा कर लेने का दावा भी किया है। इस तरह के आंदोलन कंबोडिया, रोमानिया, वियेतनाम आदि जिन देशों में भी हुए, वहां लोगों को अंतत: कंगाली ही हाथ लगी। माओ और पोल पाट ने लाखों लोगों की लाशें गिराकर खुशहाली लाने का छलावा दिया था, वह कालांतर में आत्मघाती साबित हुआ। नक्सलियों का साथ देने वाले क्या इसी अराजकता की पुनरावृत्ति चाहते हैं? इस अघोषित युद्ध का सामना दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा ही हो सकता है और इसके लिए राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठने की आवश्यकता है। सबसे पहले सुरक्षा विशेषज्ञों को इस मामले में स्वतंत्र रणनीति बनाने की छूट देनी चाहिए और भारतीय सत्ता अधिष्ठान को पूरे संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। जो क्षेत्र नक्सल मुक्त हो जाएं, उनमें युद्धस्तर पर सड़क, बिजली, पानी जैसे विकास कायरें के प्रकल्प चलाए जाने चाहिए और आदिवासियों की विशिष्ट पहचान को अक्षुण्ण रख उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। 

केदारनाथ सिंह समेत सात ने ठुकराया शलाका सम्मान

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 हिन्दी साहित्य अकादमी की ओर से कृष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से वंचित रखने के मामले ने अब तूल पकड़ लिया है। साहित्य जगत में इस सम्मान को लेकर नया विवाद प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह ने सम्मान लेने से इंकार कर खड़ा कर दिया है। इसका कारण उन्होंने हिन्दी साहित्य अकादमी की विश्वसनीयता पर खड़े हो रहे सवाल को ठहराया है।


साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने केदारनाथ सिंह के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि शलाका सम्मान की परंपरा को ही खत्म करना चाहिए। इसकी गरिमा पर जो धब्बा लगा है, उससे हिन्दी साहित्य के विद्वान बेहद आहत हैं। उन्होंने कहा कि इस बवाल के बाद यदि अकादमी कृष्ण बलदेव वैद को फिर से यह सम्मान देती भी है तो अपमान के बाद शायद ही वह इसे स्वीकार करने के लिए तैयार हों। राजेन्द्र यादव ने कहा कि किसी कथाकार को अपमानित करना देश के साहित्यकारों को रास नहीं आया है।


अकादमी की इस हरक त से वैद को शलाका सम्मान से नामित करने वाली समिति पर भी सवालिया निशान खड़े हो गए हैं । साहित्यकार विमल कुमार के मुताबिक अश्लीलता का बहाना बनाकर किसी साहित्यकार को अपमानित करने की हरकत को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है और यह हिन्दी साहित्य जगत के लिए अच्छी बात नहीं है। उन्होंने कहा कि इस प्रकरण में पुरस्कारों के चयन में राजनीति की बात खुलकर सामने आ गई है जो भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है। सूत्रों की मानें तो वरिष्ठ लेखक क ृष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से इसलिए वंचित कि या गया क्योंकि उनके लेखन में कथित रूप से अश्लीलता थी।


लेकिन आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का कहना है कि किसी लेखक की रचना के कुछ अंश पढ़कर इस तरह के आरोप लगाना कतई उचित नहीं है। पुरस्कार लेखक के समग्र रचनाकर्म को आधार बना कर दिया जाता है। इस तरह यह साफ है कि इस मुद्दे पर साहित्यकार एकजुट हो रहे हैं। हिन्दी साहित्य अकादमी के इतिहास में यह पहला मौका है जब केदारनाथ सिंह सहित सात साहित्यकारों ने पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया है।

एक और इंडियन अमेरिकी कंपनी का सीईओ

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पुणे में जन्मे, दिल्ली में पढ़े-लिखे और आईआईएम अहमदाबाद के स्टूडेंट रहे अजय बंगा को जानी-मानी फाइनैंशल कंपनी मास्टरकार्ड इंक ने अपना सीईओ नॉमिनेट किया। गौरतलब है कि सिटी ग्रुप की अगुआई भी भारतीय मूल के उसके सीईओ विक्रम पंडित के हाथ में है। इसी तरह पेप्सिको ग्रुप की सीईओ भी भारतीय मूल की इंदिरा नूयी हैं। 

गुर्जर आरक्षण

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आरक्षण के मुद्दे पर सोमवार रात गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति और राजस्थान सरकार के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत विफल होने के बाद किरोड़ी सिंह बैंसला की अगुवाई में मंगलवार को हजारों गुर्जर जयपुर के लिए रवाना हुए।

बैंसला के अचानक उठाए गए इस कदम के बाद प्रशासन ने सतर्कता बरतनी शुरू कर दी है। गुर्जर समिति के नेता बैंसला ने रेल पटरियों पर कब्जा करने की आशंकाओं से इंकार किया है लेकिन प्रशासन ने ऐहतियातन सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी है। राज्य के गृहमंत्री शांति धारीवाल हालात पर नजर रखे हुए हैं।

बैंसला ने बातचीत विफल होने का दोष धारीवाल और ऊर्जा मंत्री जितेंद्र सिंह पर मढ़ा है। उन्होंने कहा कि सरकार ने उनकी पांच मांगों में से चार मांगों पर अपनी सहमति दी है लेकिन उनकी पांचवीं मुख्य मांग पांच फीसदी आरक्षण की है, जो अभी भी अटकी हुई है।

Sunday, April 11, 2010

राज्यसभा में करोड़पति

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राज्यसभा में इस समय करीब 100 सदस्य करोड़पति हैं। महाराष्ट्र से निर्दलीय  सांसद के रूप में चुनकर राज्यसभा पहुंचे राहुल बजाज 300 करोड़ रुपये की प्रॉपर्टी के साथ सबसे धनी सांसद हैं।

दुनियाभर के करीब 1200 गैर-सरकारी संगठनों के निकाय असोसिएशन ऑफ डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स और नैशनल इलेक्शन वॉच द्वारा किए गए ऐनालिसिस के मुताबिक बजाज ने 300 करोड़ रुपये से ज्यादा मूल्य की चल-अचल संपत्तियों की घोषणा की।

इसके बाद जनता दल (सेक्युलर) के सांसद एम. ए. एम. रामास्वामी ने 278 करोड़ रुपये और कांग्रेस के टी. सुब्बारामी रेड्डी ने 272 करोड़ रुपये की प्रॉपर्टी की घोषणा की। ऐनालिसिस के मुताबिक सबसे ज्यादा 33 करोड़पति कांग्रेस पार्टी से हैं जबकि 21 बीजेपी से और 7 समाजवादी पार्टी के हैं।

आंकड़ों के मुताबिक, समाजवादी पार्टी की जया बच्चन के पास 215 करोड़ रुपये की प्रॉपर्टी है, जबकि समाजवादी पार्टी से निकाले जा चुके नेता अमर सिंह 79 करोड़ रुपये की प्रॉपर्टी के मालिक हैं। राज्यसभा के 219 सदस्यों ने अपने चुनाव के समय हलफनामे में यह जानकारी दी थी जिसे सूचना के अधिकार के तहत हासिल किया गया। 

Thursday, April 8, 2010

परमाणु हथियारों में कटौती के ऐतिहासिक समझौते पर साइन

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अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और रूस के राष्ट्रपति दिमित्रि मेदवेदेव ने परमाणु हथियारों में कटौती के ऐतिहासिक समझौते पर साइन कर दिए हैं। शीत युद्ध काल के दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों के बीच हथियारों की कटौती के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी डील है। 

प्राग कासल के स्पैनिश हॉल में साइन की गई न्यू स्ट्रटीजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (स्टार्ट) के तहत दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों को पहले से तैनात एटमी वॉरहेड की तादाद कम करके 1550 तक लानी होगी, जो 2002 में तय की गई सीमा से भी 30 पर्सेंट कम है। यह संधि इंटर कॉन्टिनेंटल बलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) और बॉमरों की तादाद को सीमित करती है, जो 700 से ज्यादा नहीं हो सकती। इस ट्रीटी को रूसी संसद और अमेरिकी सेनेट से मंजूरी मिलते ही इसके प्रावधानों को सात साल में अमल में लाना है। इसके बाद यह संधि 1991 की स्टार्ट संधि की जगह लेगी, जो दिसंबर में खत्म हुई।




वैसे, परमाणु हथियारों के प्रसार पर रोक लगाने के लिए गठित अंतरराष्ट्रीय आयोग ने कहा है कि 2025 तक रूस और अमेरिका अपने एटमी हथियारों की तादाद घटाकर 1000 तक ले आएं।

मेदवेदेव ने कहा कि इस संधि अमेरिका और रूस के बीच सहयोग का स्तर बढ़ाने में मदद मिलेगी। इससे पहले रूस के विदेश मंत्री ने कहा था कि यह संधि दोनों देशों के बीच भरोसे के नए अध्याय को दर्शाती है। साथ ही, आगाह किया कि अगर रूस को अमेरिकी मिसाइल सेफ्टी सिस्टम से खतरा महसूस हुआ तो हम संधि से पीछे हट सकते हैं। बीते मंगलवार को ओबामा ने अमेरिकी एटमी रिव्यू जारी करते हुए कहा था कि अमेरिका उस देश पर एटमी हथियारों से हमला नहीं करेगा, जिनके पास ऐसे हथियार नहीं हैं। साथ ही, जैविक, केमिकल या परंपरागत हथियारों से हमले पर एटमी हमले के विकल्प को खत्म किया जाएगा। 

Tuesday, April 6, 2010

महंगाई पर अंकुश लगाने की जरूरत

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देश में लगातार बढती महंगाई पर अंकुश लगाने के उपायों पर व्यापक चर्चा करने के लिए वाणिज्यिक बैंकों ने रिजर्व बैंक की 20 अप्रेल को घोषित की जाने वाली सालाना मौद्रिक नीति के पूर्व सोमवार को रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव से चर्चा की।

बैंक प्रमुखों ने इस मौके पर अपने सूझावों में कहा, ऋण उपलब्धता के लिए बैकिंग तंत्र में फिलहाल पर्याप्त पूंजी मौजूद है और नकद सुरक्षित अनुपात सीआरआर में आगे और बढोतरी महंगाई से निबटने के लिए कारगर साबित हो सकती है।

डॉ. सुब्बाराय और बैंक प्रमुखों के बीच बातचीत मुख्य रूप से महंगाई पर अंकुश लगाने के उपायों पर ही केंद्रित रही। भारतीय बैंक संघ की अध्यक्षता कर रहे यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक एम वी नायर ने कहा, मुद्रास्फीति का आंकडा तेजी से बढ रहा है, जो चिंता का सबब है। आर्थिक वृद्धि पर महंगाई का असर नहीं पडना चाहिए।

थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति सूचकांक फरवरी के अंत में 9.89 फीसदी तक पहुंच गया> और मार्च में यह 10 फीसदी का आकंडा पार कर सकता है। ऎसे में केंद्रीय बैंक सीआरआर बढा सकता है। हालांकि बैंकर मान रहे है कि सीआरआर बढने पर भी नकदी पर्याप्त रहेगी। लेकिन इससे बैंकों के मार्जिन पर असर पडेगा। बचत खाते में ब्याज की दैनिक गणना शुरू होने पर बैंकों का मार्जिन पहले ही घटा है।

Sunday, April 4, 2010

लविवि भी खत्म करेगा औपनिवेशिक परिपाटी

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कुलपति प्रो.मनोज कुमार मिश्र का कहना है कि लविवि भी दीक्षान्त समारोह के दौरान गाउन पहनने की औपनिवेशिक परिपाटी खत्म करेगा। प्रो.मिश्र ने बताया कि आईआईटी मुम्बई में इस परम्परा को खत्म किया जा चुका है और कुलाधिपति की अनुमति के बाद लविवि में भी इसका पालन किया जाएगा। उन्होंने केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्री की बात और कृत्य को प्रभावशाली बताया। उनके मुताबिक जयराम रमेश सबके बीच में गाउन न फेंकते तो शायद उनकी बात का प्रभाव गहरा न होता लेकिन अब अन्य विवि इस दिशा में सोच सकेंगे। उधर, उप्र प्राविधिक विवि के कुलपति प्रो.कृपाशंकर ने कहा कि दीक्षान्त समारोह के दौरान गाउन पहनना बेशक औपनिवेशिक है लेकिन गाउन फेंकना गलत है। पर्यावरण मंत्री को यदि यह प्रथा पसंद नहीं तो उन्हें इससे दूर ही रहना चाहिए था। कुलपति ने कहा कि लगभग बीस साल पहले आईआईटी कानपुर में एक छात्र ने गाउन पहनने से इन्कार किया था, उसकी बात को माना भी गया था। उन्होंने कहा कि गाउन पहनना दूसरे देश की संस्कृति से जुड़ी बात सही लेकिन संस्कार तो हर समाज में हैं। शादी, जनेऊ वगैरह में तमाम ऐसे मौके आते हैं जब कोई खास पोशाक पहननी होती है। इसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं, यह तो अपनी पसंद पर निर्भर करता है। एसजीपीजीआई के निदेशक डा.आरके शर्मा कहते हैं कि किसी समारोह में यदि हम मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद हैं तो हमारी जिम्मेदारी है कि हम उस समारोह के नियम और कानून का पालन करें तथा कार्यक्रम की गरिमा बनाने में सहयोग करें। इस दौरान ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे उस कार्यक्रम की गरिमा धूमिल हो। डा.राम मनोहर लोहिया विधि विवि के कुलपति प्रो.बलराज चौहान ने कहा है कि मंत्री जी ने गाउन उतार कर संस्थान के सम्मान को ठेस पहुंचाने का काम किया है। संस्थान ने उन्हें बुलाया था तो उन्हें वहां गाउन पहनना चाहिये था। क्योंकि गाउन पहली बार नहीं बल्कि हर दीक्षांत समारोहों में पहना जाता है।

उत्तर प्रदेश ने खड़े किए हाथ

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उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर साफ कह दिया है कि यदि केंद्र शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रति वाकई गंभीर है तो वह राज्य में इस कानून को लागू कराने पर आने वाला पूरा खर्च खुद वहन करे। अपने पत्र में उन्होंने कहा है कि उत्तर प्रदेश में इस अधिनियम को अमली जामा पहनाने के लिए सालाना 18,000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी। इसमें से 45 प्रतिशत यानी 8,000 करोड़ रुपये की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई है। सूबे की मौजूदा आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह भारी-भरकम खर्च उठा पाना राज्य के लिए संभव नहीं है। इसलिए अधिनियम को प्रदेश में लागू करने पर आने वाला पूरा खर्च केंद्र सरकार खुद वहन करे। मुख्यमंत्री ने पत्र में प्रधानमंत्री को बताया है कि उत्तर प्रदेश में शिक्षा के अधिकार को लागू करने के लिए 4,596 नए प्राथमिक स्कूल, 2,349 नए उच्च प्राथमिक विद्यालय और अन्य अवस्थापना सुविधाओं का विकास करना होगा जिसका अनुमानित खर्च 3,800 करोड़ है। वहीं छह से 14 वर्ष के सभी बच्चों को शिक्षा के दायरे में लाने के लिए प्राथमिक विद्यालयों में 3.25 लाख नए शिक्षकों की तैनाती करनी होगी। वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों में 67,000 नए नियमित शिक्षक और 44,000 अंशकालिक शिक्षकों को नियुक्त करना होगा। इसके मद्देनजर राज्य पर सालाना 10,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त व्ययभार आएगा। अधिनियम के तहत निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करनी होगी जिसकी प्रतिपूर्ति के रूप में राज्य सरकार को हर साल लगभग 3,000 करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। इस तरह से अधिनियम को यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिए सालाना 18,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री से कहा है कि संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। ऐसी स्थिति में यह जरूरी था कि अधिनियम के बारे में केंद्र राज्यों से औपचारिक विचार-विमर्श करने के साथ ही उसके क्रियान्वयन के लिए समुचित धनराशि का भी बंदोबस्त करता, जो कि नहीं किया गया। उन्होंने इस पर भी एतराज जताया है कि इस अधिनियम के बारे में केंद्र सिर्फ नीतियां बनाकर निर्देश जारी करे और उसके क्रियान्वयन की सारी जिम्मेदारी राज्यों पर हो। उन्होंने प्रधानमंत्री को याद दिलाया है कि इस संबंध में राज्य सरकार ने पिछले साल पांच नवंबर को केंद्र को पत्र भेजकर समस्त धनराशि की व्यवस्था करने का अनुरोध किया था।

जस्टिस दिनकरन को छुट्टी

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सरकारी जमीन कब्जाने के आरोप में फंसे कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनकरन के खिलाफ सख्त कार्रवाई की गई है। उन्हें छुट्टी पर चले जाने के लिए कहा गया है। उनकी तरक्की पहले ही रोकी जा चुकी थी। उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट कोलीजियम ने दिल्ली हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर को दिनकरन की जगह कर्नाटक भेजने का निर्णय किया है। कोलीजियम ने झारखंड हाई कोर्ट के वरिष्ठतम जज एम.वाई. इकबाल को मद्रास हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने के प्रस्ताव को भी हरी झंडी दे दी है। वह सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए गए एच.एल. गोखले की जगह लेंगे। दिनकरन के खिलाफ की गई कार्रवाई का कर्नाटक हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने स्वागत किया है। एसोसिएशन ने ही दिनकरन द्वारा पद का दुरुपयोग और जमीन कब्जा किए जाने का मामला जोर-शोर से उठाया था। मामला तूल पकड़ने पर स्थानीय प्रशासन से इसकी जांच कराई गई। इसके बाद दिनकरन को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में तरक्की देने का फैसला टाल दिया गया था। बीते दिसंबर में राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने का सांसदों का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया था। प्रस्ताव में भ्रष्टाचार, जमीन पर कब्जा करने और पद का दुरुपयोग करने जैसे आरोप लगाते हुए दिनकरन को पद से हटाए जाने की मांग की गई है। प्रस्ताव में दिनकरन पर आय से ज्यादा संपत्ति रखने, पत्‍‌नी और बेटियों के नाम पर गलत ढंग से पांच सरकारी प्लाट आवंटित कराने, बेनामी लेनदेन करने, तय सीमा से ज्याद खेती लायक जमीन रखने जैसे आरोप भी लगाए गए हैं। अंसारी ने दिनकरन पर लगे आरोपों की जांच के लिए समिति बना दी है। महाभियोग का प्रस्ताव स्वीकार होने के बाद से 59 वर्षीय दिनकरन ने खुद को अदालती कामकाज से अलग कर रखा था।