Tuesday, April 13, 2010

न्यायपालिका की साख

भ्रष्टाचार के आरोप में महाभियोग की प्रक्ति्रया झेल रहे कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पीडी दिनकरन ने सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम को आईना दिखा दिया है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की कमिटी की लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह ठुकरा दी। सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे और अपने पद के दुरुपयोग के आरोपी दिनकरन लंबे समय से न्यायिक कामकाज नहीं देख रहे हैं। वह सिर्फ कर्नाटक हाईकोर्ट का प्रशासनिक कामकाज संभाल रहे थे। दिनकरन के प्रशासनिक कामकाज संभालने पर उनके ही एक साथी जज ने अपनी नाराजगी का खुलेआम इजहार किया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम ने उन्हें लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी और उनकी जगह दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस मदन लोकुर को वहां का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। लेकिन दिनकरन द्वारा कालेजियम की इस सलाह को ठुकराने के बाद उनका तबादला सिक्किम हाईकोर्ट में कर दिया गया है। अगर हम कानूनी बारिकियों को देखें तो किसी भी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायमूर्ति लंबी छुट्टी पर जाने के कालेजियम की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन न्यायिक परंपरा के मुताबिक उच्च न्यायालय के जस्टिस कालेजियम की सलाह को आम तौर पर ठुकराते नहीं हैं। यहां सवाल उठता है कि अगर कोई न्यायाधीश एक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारी निभाने के लायक नहीं हैं तो वह दूसरे हाईकोर्ट में उन्ही जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकता है? इसके पहले भी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर आरोप लगे थे तो उन्हें कालेजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया था। मामला शांत होने पर उनका तबादला उत्तरांचल हाईकोर्ट कर दिया गया। इसी तरह जब जनवरी 2007 में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पीबी मजूमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बीजे सेठना पर बदसलूकी का आरोप लगाया था तो जस्टिस बीजे सेठना का तबादला सिक्किम और पीबी मजूमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था। हालांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। ये कुछ ऐसे उदाहरण है जो भारतीय न्यायिक प्रक्ति्रया में भ्रष्टाचार के मामलों को निबटने की कमियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायधीश देश की न्यायिक व्यवस्था का प्रशासनिक मुखिया होता है। वह जजों का तबादला तो कर सकता है, लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ और सिर्फ महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है। महाभियोग की प्रक्ति्रया बेहद जटिल है। जस्टिस रामास्वामी के मामले में पूरा देश इस जटिल प्रक्रिया को देख चुका है। जस्टिस दिनकरन के खिलाफ भी महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राज्यसभा के सभापति की मंजूरी के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज वीएस सिरपुकर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की कमेटी इस बारे में तथ्यों की पड़ताल करेगी। न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्ति्रया चली थी, लेकिन यह प्रस्ताव गिर गया था। दूसरी ओर हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट कालेजियम के क्रियाकलापों पर भी सवाल खड़े हुए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति एपी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति ना दिए जाने के कालेजियम के फैसले पर प्रश्नचिह्न लगा था। किसी एक न्यायाधीश के आचरण की वजह से अदालत की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो सवा सौ करोड़ लोगों के विश्वास को भी ठेस लगती है। जनता के इस विश्वास की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए। इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकती है जब हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्ति्रया पारदर्शी हो और उसका एक तय स्वरूप हो। इसके लिए सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी। सालों से ज्यूडिशियल स्टेंडर्ड एंड अकाउंटिबिलिटी बिल पर बहस चल रही है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। अब वक्त आ गया है कि इस बिल में अपेक्षित बदलाव करके संसद में पेश किया जाए और जल्द से जल्द कानून बनाकर न्यायपालिका की साख को बचाया जाए

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