Thursday, April 15, 2010
अनोखी पहल
दंतेवाड़ा में सुरक्षाबलों के त्रासद नरसंहार की प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बयान हमारे संविधान और लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के लिए आशा की किरण जगाते हैं। दोनों ही पार्टियां असाधारण प्रतिरोध और राष्ट्रवादी विचारों के स्तर तक उठी हैं। सुरक्षा विफलता पर एक असाधारण किंतु सराहनीय प्रतिक्रिया में भाजपा ने घोषणा की कि वह पी. चिदंबरम का इस्तीफा नहीं चाहती, क्योंकि अगर वह हटते हैं तो इसका मतलब माओवादियों की जीत माना जाएगा। भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि एक गृहमंत्री के रूप में पी. चिदंबरम पर राष्ट्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी है इसलिए वह एक घायल सिपाही की तरह पीठ दिखाकर नहीं भाग सकते। यद्यपि सरकार हर मोर्चे पर विफल हो गई है फिर भी यह सेनापति को हटाए जाने का सही समय नहीं है। भाजपा ने माओवादियों के खिलाफ जंग में सरकार को पूरा समर्थन जताया। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी इन हालात में गृहमंत्री से पद न छोड़ने की अपील की। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी एक सच्चे राजनेता की तरह प्रतिक्रिया जताई। दंतेवाड़ा की घटना से महज एक सप्ताह पहले पश्चिम बंगाल में माओवाद प्रभावित इलाके के दौरे के दौरान चिदंबरम ने मुख्यमंत्री और माकपा को उकसाते हुए पत्रकारों से कहा था कि मुख्यमंत्री को उपद्रव रोकने चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया में भट्टाचार्य ने गृहमंत्री को जबान संभालकर बात करने की नसीहत दी थी, किंतु दंतेवाड़ा के बाद भट्टाचार्य ने मामले को तूल नहीं दिया। उन्होंने कहा, यह किसी को या एक-दूसरे को दोषी ठहराने का समय नहीं है। यह एक साथ मिलजुलकर काम करने का समय है। महत्वपूर्ण यह है कि भट्टाचार्य ने दंतेवाड़ा के लिए चिदंबरम को दोषी नहीं ठहराया। उन्होंने इसे सामूहिक जिम्मेदारी बताया और कहा कि जब तक हम मिलजुलकर काम नहीं करेंगे तब तक माओवादी हिंसा से निपटा नहीं जा सकता। यह भारतीय राजनीति में बिल्कुल अनोखी पहल है। अबसे पहले इस तरह की घटना के लिए विपक्षी दल गृहमंत्री को पद से हटाने की मांग करते रहे हैं। भाजपा और माकपा दोनों ने यह तय किया है कि वे तुच्छ राजनीतिक लाभ हासिल नहीं करेंगे, बल्कि समग्र राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए जिम्मेदारी निभाएंगे। विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित सेकेंड एडमिनिस्ट्रेटिव रिफार्म्स कमीशन (एआरसी) की अनुशंसाओं के अनुरूप है जिसमें नक्सलवाद संबंधी समूचे मामले को पब्लिक आर्डर और कंोबेटिंग टेररिज्म नामक रिपोर्टों में पेश किया गया है। इसमें कहा गया है कि उलझी हुई समस्याओं और परस्पर विरोधी विचारों का तार्किक हल तलाशने के लिए लोकतांत्रिक परिपक्वता को समय और संयम से काम लेते हुए संजीदा प्रयास करने होंगे। इस प्रकार इसमें उम्मीद जताई गई है कि देश का राजनीतिक नेतृत्व सार्वजनिक व्यवस्था कायम करने के लिए राजनीतिक आचरण में एकजुटता का प्रदर्शन करेगा। कंोबेटिंग टेररिज्म रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि माओवादियों के हथियारों के जखीरे में सेल्फ लोडिंग, इंसास और एके श्रृंखला की राइफलें हैं। वे राकेट लांचर बनाने में सक्षम हैं। माओवाद का खतरा इसलिए और बढ़ गया है, क्योंकि उन्होंने डेटोनेटिंग इम्प्रूवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसिज (ईआईडी) बनाने में दक्षता हासिल कर ली है। कुछ घटनाएं सुरक्षाबलों पर माओवादियों के हमलों की घातकता रेखांकित करती हैं। सितंबर 2005 में दंतेवाड़ा में एंटीलैंडमाइन वाहन को उड़ाकर 24 सीआरपीएफ जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया था। उसी साल बिहार के मुंगेर में बारूदी सुरंग विस्फोट में पुलिस प्रमुख की हत्या कर दी गई। ऐसे ही एक हमले में आंध्र प्रदेश के प्रकाशम जिले में पुलिस प्रमुख बचे थे। इसके अलावा आंध्र प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और जनार्दन रेड्डी भी बम धमाकों में बाल-बाल बचे। आयोग ने कहा कि इन तमाम घटनाओं से पता चलता है कि माओवादियों ने उच्च सुरक्षा प्राप्त लोगों पर भी सुनियोजित हमलों में ईआईडी का इस्तेमाल किया है। आयोग के अनुसार माओवादी हर साल करीब सौ बारूदी सुरंगों में विस्फोट करते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में केंद्रीय और राज्य सुरक्षाकर्मियों को जान गंवानी पड़ती है। माओवादियों की इन तमाम आतंकी घटनाओं पर विस्तृत चर्चा करते हुए आयोग ने कहा कि ये सब घटनाएं केंद्रीय और प्रादेशिक पुलिस और अन्य सुरक्षाबलों के प्रशिक्षण और आतंक विरोधी अभियानों में नेतृत्व नियोजन की एक समग्र नीति बनाने की तात्कालिक आवश्यकता को रेखांकित करती है, जिसमें सुधार और विकास भी शामिल हैं। इसके अलावा आयोग ने आतंकवाद से निपटने के लिए जरूरी कानूनी ढांचे में भी कुछ मूल्यवान सुझाव दिए हैं, क्योंकि दूसरे एआरसी का गठन संप्रग सरकार ने किया था इसलिए यह सरकार पर है कि वह आयोग की राय को उचित महत्व प्रदान करे। मुंबई हमले के बाद आतंकवाद को आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर राजनीतिक सर्वसम्मति बनाने का देश को एक अवसर मिला था, किंतु कुछ शुरुआती दिक्कतों के बाद सरकार भविष्य में आतंकवादी हमलों को रोकने के विषय में बनाई गई नीतियों पर विपक्षी दलों के साथ जबानी जंग में उतर पड़ी। दंतेवाड़ा नरसंहार में इतनी बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों की मौत ने देश को हिला दिया है किंतु साथ ही आतंकवाद और सशस्त्र विद्रोह से निपटने के लिए सर्वसम्मति बनाने का एक और अवसर सरकार को प्रदान किया है। संप्रग सरकार को दोनों हाथों से इस अवसर को लपक लेना चाहिए और जनता तथा लोकतांत्रिक जीवन पद्धति को आघात पहुंचाने वाले तमाम मुद्दों पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति बनाने का प्रयास करना चाहिए। उम्मीद की जा सकती है कि इस बार सरकार वोट बैंक या झूठी प्रतिष्ठा की चिंता से मुक्त होकर कार्य करेगी और हिंसा को तनिक भी बर्दाश्त न करने की नीति पर चलेगी। अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है तो वह लोकतांत्रिक राजनीति में जनता को भरोसा कायम कर पाएगी और प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति की उम्मीद जगाएगी।
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