Tuesday, April 13, 2010
नक्सली आतंक के पैरोकार
नक्सली आतंक के पैरोकारों का दावा है कि नक्सली समस्या दो कारणों से पैदा हुई है। पूंजीपति-सामंती वर्ग व सूदखोर बनियों के शोषण के कारण आदिवासी हथियार उठाने को मजबूर हुए हैं। दूसरा, पुलिस और प्रशासन में सामंती वर्ग का प्रभुत्व होने के कारण आदिवासियों का उस स्तर पर भी शोषण होता है। यह तर्क नक्सली समस्या से त्रस्त छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जैसे अन्य दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों में आधारहीन है। दंतेवाड़ा में सामंती वर्ग कभी रहा ही नहीं। नक्सली हिंसा से पहले मीलों तक न तो कोई पुलिस चौकी थी और न ही प्रशासनिक अमला वहां उपस्थित था। वास्तव में चीन-पाक गठजोड़ ने इसी निर्वात का लाभ उठाया और इस विशाल क्षेत्र (पुराने बस्तर जिले का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर था) में भारत विरोधी वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी कर ली। सुदूर आदिवासी अंचलों में प्रशासनिक अमले की दखलंदाजी को प्रारंभिक नीति-नियंताओं ने इसीलिए सीमित रखने की कोशिश की ताकि उनकी विशिष्ट पहचान और संस्कृति अक्षुण्ण बनी रह सके। किंतु इससे वे क्षेत्र मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रह गए और इसी शून्य का फायदा उठाकर इन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक अलगाववादी भावना विकसित की गई। इस साजिश को पहचानने की आवश्यकता है। विकास से वंचित ग्रामीण इलाकों में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी तो वस्तुत: नक्सलियों के विस्तार का साधन बनी। गरीब व वंचितों का उत्थान नक्सलियों का लक्ष्य नहीं है। यदि यह सत्य होता तो सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास के लिए किए जा रहे विकास कार्यो को बाधित क्यों किया जाता है? सड़कों को क्यों उड़ा दिया जाता है? नक्सलियों का उद्देश्य शुरू से ही रहा है कि विकास कार्यो को इन इलाकों में शुरू न होने दिया जाए। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच नक्सल प्रभावित लाल गलियारे में नक्सलियों ने तीन सौ विद्यालयों को बम धमाकों से उड़ा दिया। सन 2005 से 2007 के बीच नक्सली कैडर में बच्चों की बहाली में भी तेजी दर्ज की गई है। छोटी उम्र के बच्चों को शिक्षा से वंचित कर उन्हें बंदूक थमाने वाले नक्सली कैसा विकास चाहते हैं? दलित-वंचित के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जो हिंसक आंदोलन प्रारंभ हुआ था, वह आज फिरौती और अपहरण का दूसरा नाम है। एक अनुमान के अनुसार नक्सली साल में अठारह सौ करोड़ की उगाही करते हैं। विदेशी आकाओं से प्राप्त धन संसाधन और प्रशिक्षण के बल पर भारतीय सत्ता अधिष्ठान को उखाड़ फेंकना नक्सलियों का वास्तविक लक्ष्य है। नक्सलियों ने सन 2050 तक सत्ता पर कब्जा कर लेने का दावा भी किया है। इस तरह के आंदोलन कंबोडिया, रोमानिया, वियेतनाम आदि जिन देशों में भी हुए, वहां लोगों को अंतत: कंगाली ही हाथ लगी। माओ और पोल पाट ने लाखों लोगों की लाशें गिराकर खुशहाली लाने का छलावा दिया था, वह कालांतर में आत्मघाती साबित हुआ। नक्सलियों का साथ देने वाले क्या इसी अराजकता की पुनरावृत्ति चाहते हैं? इस अघोषित युद्ध का सामना दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा ही हो सकता है और इसके लिए राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठने की आवश्यकता है। सबसे पहले सुरक्षा विशेषज्ञों को इस मामले में स्वतंत्र रणनीति बनाने की छूट देनी चाहिए और भारतीय सत्ता अधिष्ठान को पूरे संसाधन उपलब्ध कराने चाहिए। जो क्षेत्र नक्सल मुक्त हो जाएं, उनमें युद्धस्तर पर सड़क, बिजली, पानी जैसे विकास कायरें के प्रकल्प चलाए जाने चाहिए और आदिवासियों की विशिष्ट पहचान को अक्षुण्ण रख उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए।
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