Tuesday, March 9, 2010

सूचना अधिकार की परिधि से बाहर रहने की आवश्यकता

 प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय खुद को सूचना अधिकार के दायरे से बाहर रखने पर अड़ा हुआ है। सूचना आयोग, उच्च न्यायालय और फिर उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के फैसले को न मानने का औचित्य इसलिए और भी नहीं समझ में आता, क्योंकि प्रधान न्यायाधीश कार्यालय से कुछ सामान्य सूचनाएं सार्वजनिक करने की ही अपेक्षा की जा रही है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संपत्ति का विवरण अथवा न्यायाधीशों की पदोन्नति की प्रक्रिया के बारे में जानकारी हासिल करने की इच्छा का तो सम्मान किया जाना चाहिए। यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है कि उच्चतम न्यायालय जैसे नियम-कानून औरों के लिए चाहता है उनसे खुद बचे रहना चाहता है। यह समझना कठिन है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संपत्ति सार्वजनिक होने से कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? जहां तक कोलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की बात है तो ऐसा तो अनिवार्य रूप से होना चाहिए। देश को यह जानने का अधिकार है कि न्यायाधीशों का चयन और उनकी पदोन्नति किस आधार पर हो रही है? आम जनता को इस अधिकार से वंचित रखने के पक्ष में तमाम तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन कोई भी तर्क पारदर्शी व्यवस्था की महत्ता को नकार नहीं सकता। यह तर्क तो निराधार ही है कि प्रधान न्यायाधीश की ओर से सूचनाओं का खुलासा करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। सच तो यह है कि ऐसा न करने से उसकी स्वतंत्र छवि पर असर पड़ेगा, क्योंकि न्यायिक स्वतंत्रता व्यक्तिगत विशेषाधिकार नहीं है और न हो सकती है। आखिर उच्चतम न्यायालय ऐसी प्रतीति क्यों करा रहा है कि उसे कुछ ऐसे विशेष अधिकार मिलने चाहिए जिससे वह गोपनीयता के आवरण में रह सके? उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील दायर करने का निर्णय इसलिए भी चकित करता है, क्योंकि एक तो यह फैसला न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों के खिलाफ है और दूसरे देश के जाने-माने न्यायविदें की मान्यता का निरादर करने वाला है। नि:संदेह यह एक अच्छा उदाहरण नहीं होगा जब उच्चतम न्यायालय अपने ही खिलाफ मामले का निपटारा खुद करेगा। क्या यह विचित्र नहीं कि जब हर स्तर पर पारदर्शी व्यवस्था की अपेक्षा की जा रही है तब उच्चतम न्यायालय अपने लिए अपारदर्शी व्यवस्था चाह रहा है। ऐसी चाहत आम जनता के मन में अनावश्यक सवाल और संदेह ही पैदाकरेगी। यह ठीक नहीं कि उच्चतम न्यायालय को जब स्वेच्छा से आगे बढ़कर अनुकरणीय उदाहरण पेश करना चाहिए तब वह ठीक इसका उलटा कर रहा है। यदि उच्चतम न्यायालय खुद को सूचना अधिकार के दायरे से बाहर रखने में सफल हो जाता है तो यह इस अधिकार पर किया जाने वाला एक प्रहार ही होगा। इसका असर अन्य क्षेत्रों में भी पड़ सकता है। ध्यान रहे कि उच्चतम न्यायालय की तरह से अनेक सरकारी विभाग इस कोशिश में हैं कि वे सूचना अधिकार के दायरे से बाहर हो सकें। बेहतर होगा कि उच्चतम न्यायालय अपने इस निष्कर्ष पर नए सिरे से विचार करे कि उसे सूचना अधिकार की परिधि से बाहर रहने की आवश्यकता है

1 comment:

  1. दूसरों के लिये ठीक और खुद के लिये नहीं. यह इंसाफ तो समझ नहीं आया. इसे और व्यापक किया जाना चाहिये. भारत की जनता के करों से चलने और पलने वाले देश में पूर्ण पारदर्शिता होना चाहिये. पारदर्शिता के अभाव में ही भ्रष्टाचार का जन्म होता है..
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