Sunday, February 7, 2010

खुफिया मूल्यांकन की जरूरत

 भारत में प्रबंधन संस्कृति अपनी भविष्य की योजनाओं और लाभ के मद्देनजर नेता एवं नौकरशाही से नजदीकी बनाकर अपने हित साधने में लगी रहती है। इस लिहाज से राष्ट्रीय सुरक्षा की हमारी योजना और खुफिया मूल्यांकन आने वाले वक्त के मुताबिक नहीं हैं। ऊपर से हमारे नेता धड़ल्ले से अपनी राजनीतिक निष्ठा और दल बदलते रहते हैं। घरेलू राजनीति में अपना उसूल बदलते हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कई पहलुओं को कतई ध्यान में नहीं रखते। जबकि इन दिनों अंतरराष्ट्रीय पटल पर वर्तमान घटनाओं की व्याख्या और भविष्य की बेहतरी के संदर्भ में अतीत की घटनाओं को ज्यादा तूल नहीं देने की प्रवृत्ति है। आम तौर पर आने वाले समय को अतीत का विस्तार समझा जाता है और यह समझ न केवल नेता, बल्कि खुफिया एजेंसियों, सुरक्षा एजेंसियों और विदेश मंत्रालय के कर्मचारियों में व्यापक पैमाने पर है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय खुफिया ब्यूरो आईबी के तत्कालीन निदेशक बीएन मलिक ने आरोप लगाया था कि यदि अतीत के अनुभवों से हम जरा भी सबक लेते, तो शायद चीन सैनिक ताकत का इस्तेमाल नहीं करता। यह दुखद है कि इस बात की चर्चा आज कोई नहीं करना चाहता कि यदि चीन से हमारा युद्ध नहीं हुआ होता तो आज उसके साथ हमारा परस्पर व्यवहार कैसा होता? 1965 में पाकिस्तान बख्तरबंद डिवीजन के बारे में प्राप्त खुफिया जानकारी का विश्लेषण और मूल्यांकन हम नहीं कर पाए। खुफिया विश्लेषकों का तो यहां तक मानना है कि 1998 में खुफिया ब्यूरो के पास पाकिस्तान के उत्तरी इलाके से आ रही सूचनाओं की पूरी कड़ी उपलब्ध थी, मगर जब तक कारगिल का वाकया नहीं हुआ तब तक हम चेते ही नहीं। इतिहास का यह एक दुखद पहलू है कि हमारे नीति-नियंताओं ने हमेशा खुफिया सूचनाओं को नजरअंदाज किया। 1998 में जब राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) और संयुक्त खुफिया समिति (जेआईसी) का गठन हुआ, तो खुफिया सूचनाओं का मूल्यांकन करने वाली ईकाई एनएससी के अधीन हो गई। यह एक कटु सचाई है कि हमारी खुफिया एजेंसियां हालिया घटनाओं के मद्देनजर तथ्य और सूचना संकलन करती है, जबकि विदेश मंत्रालय रोजमर्रा की कूटनीति में ही अधिकांश समय व्यस्त रहता है। मौजूदा मूल्यांकन प्रक्रिया में सूचनाओं का विश्लेषण करने वाले अधिकांश ऐसे लोग हैं, जो विशेषज्ञ नहीं हैं। हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हमने अभी तक सूचनाओं के विश्लेषण के लिए विशेषज्ञों का कोई कैडर तैयार नहीं किया है और न अब तक यह परंपरा विकसित की है कि सुरक्षा से संबंधित कोई फैसला लेते समय इन सूचनाओं को ध्यान में रखें। इस तथ्य की पुष्टि हाल में घटित दो घटनाओं से होती है। पिछले साल भारत में यह धारणा मजबूत हुई है कि चूंकि अमेरिका गंभीर वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहा है और चीन के पास डालर का विशाल भंडार है, इसलिए अमेरिका चीन के मामलों में नरम और दोहरी नीतियां अपना रहा है। मसलन अमेरिका के राष्ट्रपति का तिब्बती धार्मिक गुरु दलाई लामा से मिलने से इनकार, चीन के मानवाधिकार हनन के मामले पर अमेरिका की चुप्पी, राष्ट्रपति बराक ओबामा का दक्षिण एशिया के बारे में चीन के साथ परामर्श करने वाला संयुक्त वक्तव्य खास तौर पर ध्यान देने लायक है। इस परिप्रेक्ष्य में ध्यान देने लायक बात यह है कि अमेरिका के रणनीतिक और कूटनीतिक रुख में जो बदलाव दिख रहा है उसमें वैश्विक परिदृश्य में अपनी मजबूत उपस्थिति को बनाए रखने की उसकी मजबूरी भी है। जिस पर हमारे विश्लेषक चर्चा नहीं करते। हालांकि अमेरिका ने माना था कि भारत और अमेरिका कई मामलों में साझा दृष्टिकोण रखते हैं और 21वीं सदी में अमेरिका तभी निर्णायक भूमिका निभा सकता है जब भारत उसके साथ हो। मगर इस महत्वपूर्ण अमेरिकी बयान को भारत के राजनीतिक गलियारों में ज्यादा तरजीह नहीं दी गई। और अब जब चीन-अमेरिका संबंध प्रगाढ़ होने की खबरें आती हैं तो उस पर आश्चर्य व्यक्त किया जाता है। परिस्थितियों के आकलन में इस प्रकार की विफलता कूटनयिक, व्यापारिक और प्रौद्योगिकीय दृष्टि से नुकसानदेह साबित होती है। एक अन्य उदाहरण लीजिए जो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बेहद गंभीर मसला है। ओबामा ने 2011 के मध्य से अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की घोषणा की, जिसकी प्राय: आलोचना की गई। अधिकतर विश्लेषणों में सैनिकों की वापसी पर जोर दिया गया। जबकि जरूरत इस बात पर ध्यान देने की थी कि अब से सैनिकों की वापसी शुरू होने तक की अवधि में क्या होगा। इस बीच अमेरिकी रणनीति क्या होगी और उसका पाकिस्तानियों और जिहादी गुटों पर क्या असर होगा। हमारे पूर्वाग्रही टीकाकारों का हाल यह है कि वे अमेरिकी नीतियों में या पाकिस्तान के साथ उसके संबंधों में बदलाव की कल्पना कर ही नहीं सकते। यह ठीक है कि दोनों के संबंधों के लंबे इतिहास को देखते हुए किसी भी आकलन में उसे ध्यान में रखना स्वाभाविक है, लेकिन भविष्य आधारित आकलन में इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि क्या-क्या जारी न रहने की संभावना बन सकती है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी के निदेशक द्वारा कांग्रेस में रखी रिपोर्ट को ही लीजिए जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तानी सेना जिहादी संगठनों को भारत के खिलाफ अपनी महत्वपूर्ण ढाल मानती है। क्या अमेरिका के पास ऐसे आकलन का कोई ठोस आधार है? देश को ऐसे आकलनों से फायदा होगा जो नए प्रश्न खड़े करे। उठाए गए प्रश्नों का कोई ठोस उत्तर नहीं दिया जा सकता, लेकिन उनसे संभावनाओं को तलाशने का दायरा तो बढ़ता ही है। यदि सरकार के स्तर पर ऐसे आकलन होते रहे हैं तो वे हमारी प्रतिक्रिया में भी झलकने चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश में सरकार और मीडिया के बीच संवाद में इसकी अपेक्षा की जाती है

1 comment:

  1. बहुत ज्वलंत विषय आपने उठाया
    साधुवाद

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