Sunday, February 7, 2010
बीटी बैगन का भविष्य
भारत सरकार द्वारा गठित जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने अक्टूबर 2009 में बीटी बैगन को पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित बताते हुए अपनी स्वीकृति दे दी। इसके बाद से ही विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। इसे देखते हुए सरकार ने देश भर में जनसुनवाई करने का निर्णय किया। आठ दौर की जनसुनवाई की अंतिम बैठक छह फरवरी को समाप्त हो गई। इस पर 10 फरवरी को अंतिम निर्णय लिया जाएगा। बीटी बैगन को महिको ने अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो के साथ मिलकर विकसित किया है। बीटी बैगन में मिट्टी में पाया जाने वाला क्राई 1 एसी नामक जीन डाला गया है। इससे निकलने वाले जहरीले प्रोटीन को खाने से बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले फ्रूट एंड शूट बोरर नामक कीड़े मर जाएंगे। दरअसल, बीटी बैगन को लेकर आशंकाएं कम नहीं हैं। सामान्यतया एक ही फसल की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती हैं लेकिन जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी अन्य पौधे या जंतु का जीन का किसी पौधे या जीव में प्रवेश कराया जाता है जैसे सूअर का जीन मक्का में। इसी कारण यह उपलब्धि संदिग्ध बन गई है। डा. पुष्प भार्गव उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित दो सदस्यीय पैनल के सदस्य हैं। इनके अनुसार किसी भी जीएम बीज को अनुमति देने से पहले कम से कम 30 महत्वपूर्ण परीक्षण अनिवार्य हैं। इसके विपरीत जीईएसी केवल तीन परीक्षण करती है। कई महत्वपूर्ण प्रयोग नहीं किए जाते। जीईएसी कंपनियों द्वारा दिए गए सैंपल की जांच करती है जबकि नियमत: उसे खुद सैंपल एकत्र करने चाहिए। फिर विश्व के 180 देशों में जीएम खेती या उत्पादों पर पूरी तरह रोक लगी हुई है। विश्व की 75 प्रतिशत जीएम खेती चार देशों (अमेरिका, कनाडा, ब्राजील व अर्जेंटीना) में होती है। यहां भी सिर्फ चार फसलें (कपास, सोयाबीन, मक्का, कैनोला) में ही जीन संवर्द्धन की छूट है। इनमें से अधिकांश का प्रयोग जैव ईंधन के लिए किया जाता है। बीटी बैगन की रोग प्रतिरोधकता और अधिक उत्पादकता के दावे को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। अब तक के अनुभवों से यही प्रमाणित होता है कि अन्य परिस्थितियों के अनुकूल रहने पर जीएम बीज शुरू में अच्छी पैदावार देते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उत्पादकता में कमी आने लगती है। तीन-चार वषरें में ही खेत में ऐसे कीट पैदा हो जाते हैं जिनके लिए अधिक शक्तिशाली रसायनों की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए बीटी कपास में बालवर्म के विरुद्ध प्रतिरोधकता मौजूद थी, लेकिन पिछले कुछ वषरें से कई अन्य कीटों (बालवीवल, आर्मीबर्म तथा ह्वाइट फ्लाई) ने कपास की फसल को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया। अब तो बालवर्म में भी प्रतिरोधकता उत्पन्न हो रही है। केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, माटुंगा (मुंबई) की रिपोर्ट के अनुसार 2008-09 में बीटी कपास के 12 प्रतिशत फूल बालवर्म चट कर गए जबकि चार साल पहले तक मात्र तीन प्रतिशत कपास में ही बालवर्म लगते थे। विशेषज्ञों के अनुसार बालवर्म इसी रफ्तार से बढ़े तो बीटी कपास की 30 प्रतिशत फसल बर्बाद हो जाएगी। कड़वा सच यह है कि जीएम तकनीक के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरे विश्व की खाद्य श्रृंखला पर कब्जा जमाने की मुहिम में जुट गई हैं। आहार का आधार खेती है और खेती का आधार बीज। एक बार बीजों के मामले में पराधीन हो जाने पर किसी भी देश की राजनीतिक-आर्थिक स्वतंत्रता व खाद्य सुरक्षा सदा के लिए खत्म हो जाती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह कार्य बीजों की विविधता खत्म करके कर रही हैं। उदाहरण के लिए 1959 में श्रीलंका में 2000 किस्मों के धान की खेती होती थी लेकिन अब वहां 100 से भी कम किस्मों की खेती हो रही है। भारत में भी पिछली आधी शताब्दी के दौरान फसलों की 1,000 किस्में गायब हो गईं। हरित क्रांति को रक्तिम क्रांति में बदलने में एक-दो फसलों की खेती (मोनोकल्चर) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जीएम फसलों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के अभी तक जो अध्ययन हुए हैं उनसे सिद्ध हो चुका है कि बीटी बैगन खाने के बाद गाय, बकरी, खरगोश, मछलियां और चूहे जैसे जीवों को गंभीर बीमारियों ने घेर लिया। अधिकतर जीवों के आंतरिक अंगों में विकृतियां आईं और उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति भी कम हुई। महिको ने बीटी बैगन के गुणों को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, लेकिन संभावित दुष्परिणामों को जानबूझकर छिपाया। ऐसे में अधिक उत्पादन के मोह में पड़कर बीटी बैगन पर जल्दबाजी में कोई निर्णय करने से पहले बीज बाजार पर एकाधिकार रोकने, जैव विविधता संरक्षण, छोटे किसानों के हित, लेबलिंग व्यवस्था, जन स्वास्थ्य आदि को भी ध्यान में रखना होगा।
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