Monday, February 1, 2010
बीटी बैंगन के नफा-नुकसान
बीटी बैंगन को लेकर इन दिनों सरकार और जागरूक समाज में बहस छिड़ी है। सरकार विदेशी कंपनियों के दबाव में है। दूसरी ओर देश के भीतर इस बैंगन के खिलाफ सरकार पर दबाव बनाने की कोशिशें जारी हैं। आखिरकार ये बीटी बैंगन क्या है जिस पर इतना बवेला मचा है। साधारण बैंगन की भांति ही दिखने वाले इस खास बैंगन की बुनियादी बनावट में फर्क है। इसके पौधे, हर कोशिका में एक खास तरह का जहर पैदा करने वाला जीन होता है। इस बीटी यानी बेसिलस थिरूंजेनेसिस नामक एक बैक्टीरिया से निकालकर बैंगन की कोशिका में प्रवेश करा दिया गया है। जीन को, पौधे में प्रवेश कराने की प्रक्रिया बहुत ही पेचीदा और महंगी है। इसे जेनेटिकली माडीफाइड (जीएम) का नाम दिया गया है। भारत में इसका सबसे पहला प्रयोग मध्यप्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के खेतों में बीटी बैंगन की प्रयोगात्मक फसलों की जांच की गई। पता चला कि बैंगन में प्राय: लगने वाले 70 प्रतिशत कीट इसमें मर जाते हैं। यही इसका सकारात्मक पहलू है। हालांकि प्राणियों पर इसका बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ लेकिन जितना भी हुआ उससे यही बात सामने निकल कर आई कि यह सेहत के लिए नुकसानदायक है। बीटी बैंगन खाने वाले चूहों के फेफड़ों में सूजन, अमाशय में रक्तस्राव, संतानों की मृत्युदर में वृद्धि जैसे बुरे प्रभाव दिखे। अमेरिकन एकेडमी आफ इनवायरमेंट मेडिसिन (एएइएस) का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। विषाक्ता, एलर्जी और प्रतिरक्षण, प्रजनन, स्वास्थ्य, चय-अपचय, पचाने की क्रियाओं पर तथा शरीर और अनुवांशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें, उनसे बनी खाने-पीने की चीजें भयानक ही होंगी। भारत में इस तकनीक से बने कपास के बीज बोए जा चुके हैं। ऐसे में खेतों में काम करने वालों में एलर्जी होना आम बात है। यदि पशु ऐसे खेत में चरते हैं तो उनके मरने की आशंका बढ़ती है। भैंसे बीटी बिनौले की चरी खाकर बीमार पड़ती हैं। उनकी चमड़ी खराब हो जाती है व दूध कम हो जाता है। साथ ही इन पौधों को उपजाने से जमीन, खेत, जल, जहरीला होता है, तितली, केंचुए भी कम हो जाते हैं। जीएम बीजों से देश की पारंपरिक खेती नष्ट हो जाएगी। मात्र खर पतवार की समाप्ति के लिए जीएम फसलों की कोई जरूरत नहीं है। पिछले चार साल में दुनिया भर के 400 कृषि वैज्ञानिकों ने मिलकर एक आकलन किया है। विकास के लिए कृषि, विज्ञान और तकनीकी का इसे अंतरराष्ट्रीय आकलन माना गया है। उनका निष्कर्ष है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग या नेनो टेक्नॉलाजी जैसे उच्च प्रौद्योगिकी में इसका समाधान नहीं है। समाधान तो मिलेगा छोटे पैमाने पर, पर्यावरण की दृष्टि से ठीक खेती में।
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