Tuesday, February 23, 2010
Wednesday, February 17, 2010
परफारमेंस मॉनिटरिंग एंड इवैल्युएशन सिस्टम (पीएमईएस)
कामकाज की रेटिंग बाबुओं से कराने पर कुछ केंद्रीय मंत्रियों की आपत्तियों के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने अपने तेवर बदल दिए हैं। इस बदले रुख का परिचय देते हुए पीएमओ ने इससे किनारा करते हुए कहा कि मंत्रियों के कामकाज का मूल्यांकन और रेटिंग नौकरशाहों से नहीं कराया जाएगा। इसके विपरीत मंत्री ही अपने विभाग के कामकाज की अंतिम समीक्षा रिपोर्ट पर मुहर लगाएंगे। केंद्रीय मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा कराने के लिए कैबिनेट सचिव के अधीन बनी नौकरशाहों की एक समिति को लेकर सरकार में ही उठे सवालों को देखते हुए पीएमओ ने मंगलवार को यह सफाई दी। गौरतलब है कि कांग्रेस के ही चार वरिष्ठ मंत्रियों गुलाम नबी आजाद, कमलनाथ, अंबिका सोनी और जयराम रमेश ने कैबिनेट सचिवालय के तंत्र के जरिए उनके कार्यो का मूल्यांकन तथा रेटिंग करने के फैसले पर सवाल उठाया है। आजाद ने तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बारे में एक पत्र भी लिखा है। अपने ही वरिष्ठ मंत्रियों की ओर से इस प्रणाली पर सवाल उठाए जाने को देखते हुए पीएमओ ने कैबिनेट सचिवालय से सफाई जारी कराई। कैबिनेट सचिवालय ने प्रधानमंत्री के दिशानिर्देशों का हवाला देते हुए सफाई दी है कि कामकाज की समीक्षा पूरी तरह मंत्रियों के द्वारा संचालित होगी, न कि उनकी रेटिंग की जाएगी। उसके अनुसार परफारमेंस मॉनिटरिंग एंड इवैल्युएशन सिस्टम (पीएमईएस) का मकसद विभाग की मंत्री के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना है जिसमें एक समयबद्ध लक्ष्य तय किया गया हो। इस समिति के कामकाज के दायरे पर सफाई देते हुए पीएमओ ने कहा है कि समिति मंत्रियों या विभागों के कामकाज का मूल्यांकन नहीं करती है बल्कि मंत्रियों को अपने विभाग का इस प्रकार से मूल्यांकन करने के लिए तकनीकी समर्थन उपलब्ध कराती है। इस समिति का मुख्य काम विभिन्न विभागों के बीच समरूपता और निरंतर समन्वय सुनिश्चित करना है। इसके अलावा समिति दिशानिर्देश तय करने, रिजल्ट फ्रेमवर्क डाक्यूमेंट (आरएफडी) को समय पर जमा कराने तथा संबंधित विभागों व मंत्रियों को फीडबैक मुहैया कराने का काम करती है। सफाई में यह भी कहा गया है कि प्रधानमंत्री के निर्देश साफ हैं कि यह पूरी प्रक्रिया मंत्रियों द्वारा संचालित की जाएगी। हर मंत्री नए वित्त वर्ष में सरकार के एजेंडे और अपने विभागीय लक्ष्यों के बीच प्राथमिकता तय करेगा
Thursday, February 11, 2010
अग्नि III और अग्नि V
भारत ने कहा है कि एक साल के अंदर ही वो 5,000 किलोमीटर तक मार करनेवाली परमाणु क्षमता से लैस मिसाइल का परीक्षण कर सकेगा.
ज़मीन से ज़मीन पर मार करनेवाली ये अग्नि-V मिसाइल चीन और पाकिस्तान में मौजूद किसी भी लक्ष्य तक पहुंचने की क्षमता रखती है.
देश के प्रमुख रक्षा वैज्ञानिक वी के सारस्वत ने दिल्ली में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि अग्नि III और अग्नि V के बाद चीन और पाकिस्तान में कोई ऐसा ठिकाना नहीं बचता जहां हम मार करना चाहते हैं लेकिन नहीं कर सकते.
सारस्वत का कहना था, “इस मिसाइल की योजना अब ड्रॉईंग बोर्ड से निकलकर कार्यान्यवित किए जाने के स्तर पर पहुंच गई है और साल भर के अंदर ही इसका पहला परीक्षण हो सकेगा.
अग्नि III सेना के इस्तेमाल के लिए पूरी तरह से तैयार है और इसे सेना को सौंप दिया जाएगा.
इस मिसाइल की मारक क्षमता 3,500 किलोमीटर तक की है.
अग्नि 3 का टेस्ट एक असाधारण उपलब्धि है। इसके लिए डीआरडीओ बधाई का पात्र है।
रविवार को हुआ यह टेस्ट चौथा और सेना में शामिल करने के पूर्व अंतिम था। एक अधिकारी ने बताया कि अब अग्नि 3 को सेना में शामिल किया जाएगा। अग्नि 3 को उड़ीसा के भद्रक जिले में इनर वीलर द्वीप पर स्थित लॉन्च साइट से सुबह 10: 50 बजे टेस्ट किया गया। निशाने के नजदीक स्थित दो जहाजों ने पूरी कार्रवाई पर नजर रखी।
दो मीटर की लंबाई वाली इस मिसाइल का वजन लगभग 1.5 टन है। उड़ान के दौरान इसने अधिकतम 350 किलोमीटर की ऊंचाई प्राप्त कर ली। जब इसने फिर से धरती के वातावरण में प्रवेश किया उस समय अग्नि 3 को 3000 डिग्री सेल्सियस का टेंपरेचर झेलना पड़ा। इस मिसाइल का दो स्टेज का सॉलिड प्रोपैलेंट सिस्टम है। इंटिग्रेटिड टेस्ट रेंज के डायरेक्टर एस. पी. दास का कहना था, परीक्षण पूरी तरह से कामयाब रहा, इसने अपने सभी मकसद पूरे किए।
रविवार को हुआ यह टेस्ट चौथा और सेना में शामिल करने के पूर्व अंतिम था। एक अधिकारी ने बताया कि अब अग्नि 3 को सेना में शामिल किया जाएगा। अग्नि 3 को उड़ीसा के भद्रक जिले में इनर वीलर द्वीप पर स्थित लॉन्च साइट से सुबह 10: 50 बजे टेस्ट किया गया। निशाने के नजदीक स्थित दो जहाजों ने पूरी कार्रवाई पर नजर रखी।
दो मीटर की लंबाई वाली इस मिसाइल का वजन लगभग 1.5 टन है। उड़ान के दौरान इसने अधिकतम 350 किलोमीटर की ऊंचाई प्राप्त कर ली। जब इसने फिर से धरती के वातावरण में प्रवेश किया उस समय अग्नि 3 को 3000 डिग्री सेल्सियस का टेंपरेचर झेलना पड़ा। इस मिसाइल का दो स्टेज का सॉलिड प्रोपैलेंट सिस्टम है। इंटिग्रेटिड टेस्ट रेंज के डायरेक्टर एस. पी. दास का कहना था, परीक्षण पूरी तरह से कामयाब रहा, इसने अपने सभी मकसद पूरे किए।
Wednesday, February 10, 2010
विधायकों को छठा वेतनमान
कर्मचारियों को छठा वेतनमान देने के बाद मुख्यमंत्री मायावती ने सोमवार को मंत्रियों और विधायकों को भी खुश कर दिया। विधायक अभी 30 हजार रुपये महीना तनख्वाह पाते थे, अब उन्हें 50 हजार रुपये महीने मिला करेंगे। मंत्रियों की तनख्वाह 32 हजार रुपये के बजाय 54 हजार रुपये होगी। पूर्व विधायकों की पेंशन भी बढ़ गयी है। सबसे बड़ी बात यह कि विधायकों के लिए पारिवारिक पेंशन योजना की शुरुआत होगी। किसी मौजूदा या पूर्व विधायक की मृत्यु होने पर उसके पति/ पत्नी को, विधायक को देय पेंशन की आधी राशि मिलेगी, जो किसी सूरत में 3500 रुपये महीने से कम नहीं होगी।
Monday, February 8, 2010
नासा का मिशन सन
नासा सूर्य के मेकनिज़म को समझने के लिए 9 फरवरी को एक मिशन शुरू करने वाला है। इसके तहत एक केप कनैवरल सोलर डायनैमिक डायनेमिक्स ऑब्जवेर्ट्री (एसडीओ) का लॉन्च किया जाना है। इसके तहत सूरज पर उठने वाले सोलर तूफानों, सोलर स्पॉट, सोलर विंड वगैरह की स्टडी की जाएगी। यह एसडीओ अगले पांच साल तक सूरज का चक्कर लगाएगा। इस दौरान यह सूरज से निकलने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों के उतारचढ़ाव, मैगनेटिक फील्ड और उसकी सतह के फोटोग्राफ खींचे जाएंगे।
वैज्ञानिक इसे इसलिए अहम मानते हैं कि यह प्रयोग सिर्फ विज्ञान के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि इसका फायदा धरती पर रहने वाले इंसानों को होगा। असल में इन सोलर तूफानों और सोलर विंड की वजह से पावर सप्लाई, कम्यूनिकेशन सिग्नल, एयरक्राफ्ट नेविगेशन सिस्टम डिस्टर्ब हो जाते हैं। एसडीओ की स्टडी की बदौलत सूरज के मौसम की जानकारी समय से पहले मिल जाएगी और अगर कोई जोखिम होगा तो उसकी समय से पहले चेतावनी दी जा सकेगी।
वैज्ञानिक इसे इसलिए अहम मानते हैं कि यह प्रयोग सिर्फ विज्ञान के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि इसका फायदा धरती पर रहने वाले इंसानों को होगा। असल में इन सोलर तूफानों और सोलर विंड की वजह से पावर सप्लाई, कम्यूनिकेशन सिग्नल, एयरक्राफ्ट नेविगेशन सिस्टम डिस्टर्ब हो जाते हैं। एसडीओ की स्टडी की बदौलत सूरज के मौसम की जानकारी समय से पहले मिल जाएगी और अगर कोई जोखिम होगा तो उसकी समय से पहले चेतावनी दी जा सकेगी।
एचपी मिनी 210 नोटबुक
एचपी ने अपनी नई रेंज मिनी 210 नोटबुक पेश की है, जिसकी खासियत है कि उसमें एटम प्रोसेसर 450 इस्तेमाल किया गया है। आमतौर पर नेटबुक्स में आपको एटम का 280 वर्जन मिलेगा। एचपी का दावा है कि इस प्रोसेसर के दम से इसे 9.5 घंटे की बैटरी लाइफ और बेहद फास्ट स्पीड मिलती है। इसमें ऑप्शनल हाई डेफिनेशन विडियो प्लेबैक का फीचर भी है। इसके अलावा मिनी 210 में 3जी कार्ड का स्लॉट भी है, हालांकि अभी 3जी के लिए बहुत कम नेटवर्क ऑप्शन हैं। जीपीएस का फीचर भी इसमें दिया गया है। 1.22 किलो वजन के इस मॉडल में आपको 10.1 इंच की स्क्रीन मिलती है। इसके अलावा एचपी क्लाउड ड्राइव में आप अपने डॉक्यूमेंट, फोटो और म्यूजिक सेव कर सकते हैं ताकि आपकी डिस्क ड्राइव पर ज्यादा से ज्यादा जगह फ्री रहे। 16,000 रुपये से इन नेटबुक्स की रेंज शुरू होती है। इसकी डिफॉल्ट मेमरी 1 जीबी है। क्विक इंटरनेट का मजेदार फीचर इसमें है। अगर आप सिर्फ इंटरनेट सफिर्ंग करना चाहते हैं तो महज एक बटन दबाकर बिना पूरा सिस्टम ऑन किए आप नोटबुक को सीधे इंटरनेट से कनेक्ट कर सकते हैं। एचपी ने इसे कई फैशनेबल कलर फॉरमैट्स में पेश कर वैलंटाइन डे के तोहफे के तौर पर पेश किया है।
अग्नि-3 सेना में शामिल होने की कसौटी पर खरी
बालासोर, परमाणु आयुध ले जाने और 3500 किलोमीटर दूरी तक मार करने में सक्षम मिसाइल अग्नि-3 परीक्षण की एक और कसौटी पर खरी उतरी। इसके साथ सेना में शामिल किए जाने का रास्ता साफ हो गया। रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता सितांशु कार ने बताया कि उड़ीसा के सुदूर तटीय क्षेत्र व्हीलर द्वीप से रविवार सुबह 10.50 बजे अग्नि-3 का चौथा परीक्षण किया गया। अग्नि-3 ने अपनी पूरी दूरी तय की, लक्ष्य तक सटीक पहुंची और मिशन के उद्देश्यों पर सौ फीसदी खरी उतरी। परीक्षण पर नजर रखने के लिए नौसेना के दो जहाज मौजूद थे। अग्नि-3 को अचूक लक्ष्य भेदते हुए देखा गया। मिसाइल को मोबाइल रेल लांचर से प्रक्षेपित किया गया। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने परीक्षण को असाधारण सफलता करार देते हुए डीआरडीओ प्रमुख वीके सारस्वत और अग्नि-3 के प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों को बधाई दी। सितांशु कार ने बताया कि अग्नि-3 का चौथा परीक्षण सेना में शामिल किए जाने से पूर्व के परीक्षण का हिस्सा था।
Sunday, February 7, 2010
इस न्योते का निहितार्थ
भारत ने पाकिस्तान को वार्ता का न्योता देकर देश को अचरज में डाल दिया है, क्योंकि पाकिस्तान ने मुंबई हमले की साजिश रचने वालों के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। यही नहीं वह यह आश्वासन देने के लिए भी तैयार नहीं कि 26-11 जैसे और हमले नहीं होने दिए जाएंगे। पाकिस्तान से बातचीत की पेशकश इसलिए और अधिक आश्चर्यजनक है, क्योंकि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह मानना था कि पाकिस्तान की सरकारी एजेंसियों की मदद के बगैर मुंबई हमला नहीं हो सकता था। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उन्होंने मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई के बगैर पाकिस्तान से बातचीत न होने की संभावना एक नहीं अनेक बार खारिज की और स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से पाकिस्तान को यह चेतावनी भी दी थी कि वह अपनी भूमि का गलत इस्तेमाल न करे। अब अचानक उन्होंने पाकिस्तान को बातचीत की मेज पर आने का निमंत्रण दे दिया। सरकार के इस फैसले की आलोचना स्वाभाविक है। भाजपा ने वार्ता की इस पेशकश को आत्मसमर्पण बताया है तो अन्य दल भी सरकार के इस निर्णय की प्रशंसा करने के लिए तैयार नहीं दिखते। यह लगभग तय है कि संसद के आगामी बजट सत्र में सरकार को इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि पाकिस्तान से बातचीत क्यों की जा रही है? ऐसे सवाल इसलिए और उठेंगे, क्योंकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने भारत के फैसले पर यह कहा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव में वह वार्ता की मेज पर आने के लिए मजबूर हुआ। गिलानी ने यह भी संकेत दे दिए कि वह आतंकवाद के बजाय कश्मीर पर चर्चा करने के लिए लालायित हैं। उन्होंने साफ कहा कि पाकिस्तान कश्मीर के लिए संघर्ष करने वालों को हर संभव तरीके से मदद देगा। इसके एक दिन पहले ही गुलाम कश्मीर में पाकिस्तान सरकार की अनुमति से आतंकियों ने एक सम्मेलन किया, जिसमें उन्होंने कश्मीर को आजाद कराने के लिए जेहाद छेड़ने की धमकी दी। आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएं बढ़ जाएं। ऐसी घटनाएं देश के दूसरे हिस्सों में भी हो सकती हैं। वैसे भी अभी तक का अनुभव यही बताता है कि भारत-पाक वार्ता के पहले आतंकी घटनाओं में तेजी आ जाती है। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि अमेरिका ने एक बार फिर पाकिस्तान का पक्ष लिया, क्योंकि अमेरिकी रक्षासचिव राबर्ट गेट्स और राष्ट्रपति ओबामा के विशेष दूत होलबू्रक की नई दिल्ली की यात्रा के बाद ही भारत ने पाकिस्तान को बातचीत का न्योता भेजा है। ऐसा तब किया गया जब पाकिस्तान ने यह कहा कि वह मुंबई सरीखे हमले दोबारा न होने की गारंटी नहीं ले सकता। यह बात राबर्ट गेट्स के इस बयान के जवाब में कही गई थी कि भारत एक और 26-11 होने पर चुप नहीं बैठेगा। ध्यान रहे कि नवंबर 2008 में मंुबई पर हमले के बाद भारत ने अत्यधिक संयम का परिचय दिया था-और वह भी तब जब देश में पाक के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश था। गृहमंत्री चिदंबरम लगातार यह संकेत दे रहे हैं कि पाकिस्तान में फल-फूल रहे आतंकी भारत में एक और बड़े हमले की ताक में हैं और पाकिस्तान जानबूझकर मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रहा, लेकिन अब वही इस्लामाबाद जाने की तैयारी कर रहे हैं। फिलहाल यह कहना कठिन है कि चिदंबरम पाकिस्तान जाएंगे या नहीं, लेकिन इसके आसार कम हैं कि मौजूदा माहौल में भारत-पाक वार्ता से कोई सकारात्मक नतीजे सामने आएंगे। पाकिस्तान भारत विरोधी आतंकी ढांचे को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं और उलटे आतंकियों को समर्थन देने की घोषणा कर रहा है। आखिर जब सीमा पार सक्रिय आतंकी कश्मीर को लेकर जेहाद छेड़ने को तैयार हों और पाकिस्तान सरकार उनके प्रति नरमी बरत रही हो तब दोनों देशों की बातचीत से शांति की उम्मीद कैसे की जा सकती है? नि:संदेह कोई भी यह समझ सकता है कि भारत पर पाकिस्तान से वार्ता करने के लिए अमेरिका ने दबाव डाला होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने करीब एक वर्ष पहले राष्ट्रपति पद की शपथ लेते समय पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर विशेष ध्यान देने की बात कही थी, लेकिन अब वह तालिबान आतंकियों से सौदेबाजी करना चाहते हैं। अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के सहयोग के बगैर वह तालिबान पर काबू नहीं पा सकता, लेकिन उसका सहयोग लेने के लिए वह जिस तरह उसकी शर्तरे को मान रहा है उससे भारत को चिंतित होना चाहिए। अमेरिका पाकिस्तान का सहयोग पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी ऐसी तस्वीर पेश करने की कोशिश में है कि उसे कठघरे में न खड़ा किया जा सके। निश्चित रूप से अमेरिका एक भारी भूल कर रहा है, लेकिन आखिर भारत उसके दबाव में क्यों आ रहा है? यह समय तो अमेरिका के अनुचित दबाव का प्रतिकार करने का था, क्योंकि यह लगभग तय है कि अब पाकिस्तान का मनोबल और बढ़ेगा। इसके संकेत भी मिलने लगे हैं। हो सकता है कि भारतीय कूटनयिक इस नतीजे पर पहुंचे हों कि पाकिस्तान से बातचीत कर तनाव में कमी लाई जा सकती है, लेकिन ऐसा शायद ही हो। यदि भारत सरकार को पाकिस्तान से बातचीत करनी ही थी तो फिर उसे देश की जनता को भरोसे में लेना चाहिए था। ऐसा करने से आम जनता खुद को ठगी हुई महसूस नहीं करती, क्योंकि अभी तक यही कहा जा रहा था कि पाकिस्तान से बातचीत नहीं हो सकती। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि दोनों देशों के संबंध तनावपूर्ण हैं और पिछले दिनों इंडियन प्रीमियर लीग के लिए खिलाडि़यों की बोली के समय पाकिस्तानी क्रिकेटरों की अनदेखी के बाद तो संबंधों में और खटास आ गई है। यदि भारत सरकार को पाकिस्तान की जनता को कोई संदेश देना ही था तो ऐसी कोशिश की जा सकती थी जिससे पाकिस्तानी क्रिकेटर आईपीएल में शामिल हो सकते। इसके जवाब में पाकिस्तान सरकार मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के कुछ ठोस कदम उठा सकती थी। यदि ऐसा कुछ होने के बाद बातचीत की पेशकश की जाती तो उसका औचित्य समझ में आता। दोनों देशों को यह पता होना चाहिए कि वार्ता के लिए सिर्फ आमने-सामने बैठना ही पर्याप्त नहीं होता। अभी तो यह प्रतीत हो रहा है कि भारत ने किसी दबाव में पाकिस्तान को बातचीत का न्योता भेजा। इस न्योते के जवाब में गिलानी ने जैसा कटाक्ष किया है उससे यह साबित होता है कि पाकिस्तान की दिलचस्पी वार्ता के जरिये तनाव घटाने में नहीं, बल्कि यह दिखाने में है कि कूटनीतिक दांवपेंच में भारत कमजोर साबित हुआ। फिलहाल यह कहना कठिन है कि दोनों देशों की बातचीत संबंधों में सुधार ला सकेगी, लेकिन इतना अवश्य है कि इस वार्ता के जरिये अमेरिका को अपने हित साधने में मदद मिलेगी। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि भारत एक ऐसी वार्ता करने जा रहा है जिससे पाकिस्तान को बढ़त मिलेगी और अमेरिका के हितों की पूर्ति होगी
खुफिया मूल्यांकन की जरूरत
भारत में प्रबंधन संस्कृति अपनी भविष्य की योजनाओं और लाभ के मद्देनजर नेता एवं नौकरशाही से नजदीकी बनाकर अपने हित साधने में लगी रहती है। इस लिहाज से राष्ट्रीय सुरक्षा की हमारी योजना और खुफिया मूल्यांकन आने वाले वक्त के मुताबिक नहीं हैं। ऊपर से हमारे नेता धड़ल्ले से अपनी राजनीतिक निष्ठा और दल बदलते रहते हैं। घरेलू राजनीति में अपना उसूल बदलते हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कई पहलुओं को कतई ध्यान में नहीं रखते। जबकि इन दिनों अंतरराष्ट्रीय पटल पर वर्तमान घटनाओं की व्याख्या और भविष्य की बेहतरी के संदर्भ में अतीत की घटनाओं को ज्यादा तूल नहीं देने की प्रवृत्ति है। आम तौर पर आने वाले समय को अतीत का विस्तार समझा जाता है और यह समझ न केवल नेता, बल्कि खुफिया एजेंसियों, सुरक्षा एजेंसियों और विदेश मंत्रालय के कर्मचारियों में व्यापक पैमाने पर है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय खुफिया ब्यूरो आईबी के तत्कालीन निदेशक बीएन मलिक ने आरोप लगाया था कि यदि अतीत के अनुभवों से हम जरा भी सबक लेते, तो शायद चीन सैनिक ताकत का इस्तेमाल नहीं करता। यह दुखद है कि इस बात की चर्चा आज कोई नहीं करना चाहता कि यदि चीन से हमारा युद्ध नहीं हुआ होता तो आज उसके साथ हमारा परस्पर व्यवहार कैसा होता? 1965 में पाकिस्तान बख्तरबंद डिवीजन के बारे में प्राप्त खुफिया जानकारी का विश्लेषण और मूल्यांकन हम नहीं कर पाए। खुफिया विश्लेषकों का तो यहां तक मानना है कि 1998 में खुफिया ब्यूरो के पास पाकिस्तान के उत्तरी इलाके से आ रही सूचनाओं की पूरी कड़ी उपलब्ध थी, मगर जब तक कारगिल का वाकया नहीं हुआ तब तक हम चेते ही नहीं। इतिहास का यह एक दुखद पहलू है कि हमारे नीति-नियंताओं ने हमेशा खुफिया सूचनाओं को नजरअंदाज किया। 1998 में जब राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) और संयुक्त खुफिया समिति (जेआईसी) का गठन हुआ, तो खुफिया सूचनाओं का मूल्यांकन करने वाली ईकाई एनएससी के अधीन हो गई। यह एक कटु सचाई है कि हमारी खुफिया एजेंसियां हालिया घटनाओं के मद्देनजर तथ्य और सूचना संकलन करती है, जबकि विदेश मंत्रालय रोजमर्रा की कूटनीति में ही अधिकांश समय व्यस्त रहता है। मौजूदा मूल्यांकन प्रक्रिया में सूचनाओं का विश्लेषण करने वाले अधिकांश ऐसे लोग हैं, जो विशेषज्ञ नहीं हैं। हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हमने अभी तक सूचनाओं के विश्लेषण के लिए विशेषज्ञों का कोई कैडर तैयार नहीं किया है और न अब तक यह परंपरा विकसित की है कि सुरक्षा से संबंधित कोई फैसला लेते समय इन सूचनाओं को ध्यान में रखें। इस तथ्य की पुष्टि हाल में घटित दो घटनाओं से होती है। पिछले साल भारत में यह धारणा मजबूत हुई है कि चूंकि अमेरिका गंभीर वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहा है और चीन के पास डालर का विशाल भंडार है, इसलिए अमेरिका चीन के मामलों में नरम और दोहरी नीतियां अपना रहा है। मसलन अमेरिका के राष्ट्रपति का तिब्बती धार्मिक गुरु दलाई लामा से मिलने से इनकार, चीन के मानवाधिकार हनन के मामले पर अमेरिका की चुप्पी, राष्ट्रपति बराक ओबामा का दक्षिण एशिया के बारे में चीन के साथ परामर्श करने वाला संयुक्त वक्तव्य खास तौर पर ध्यान देने लायक है। इस परिप्रेक्ष्य में ध्यान देने लायक बात यह है कि अमेरिका के रणनीतिक और कूटनीतिक रुख में जो बदलाव दिख रहा है उसमें वैश्विक परिदृश्य में अपनी मजबूत उपस्थिति को बनाए रखने की उसकी मजबूरी भी है। जिस पर हमारे विश्लेषक चर्चा नहीं करते। हालांकि अमेरिका ने माना था कि भारत और अमेरिका कई मामलों में साझा दृष्टिकोण रखते हैं और 21वीं सदी में अमेरिका तभी निर्णायक भूमिका निभा सकता है जब भारत उसके साथ हो। मगर इस महत्वपूर्ण अमेरिकी बयान को भारत के राजनीतिक गलियारों में ज्यादा तरजीह नहीं दी गई। और अब जब चीन-अमेरिका संबंध प्रगाढ़ होने की खबरें आती हैं तो उस पर आश्चर्य व्यक्त किया जाता है। परिस्थितियों के आकलन में इस प्रकार की विफलता कूटनयिक, व्यापारिक और प्रौद्योगिकीय दृष्टि से नुकसानदेह साबित होती है। एक अन्य उदाहरण लीजिए जो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बेहद गंभीर मसला है। ओबामा ने 2011 के मध्य से अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की घोषणा की, जिसकी प्राय: आलोचना की गई। अधिकतर विश्लेषणों में सैनिकों की वापसी पर जोर दिया गया। जबकि जरूरत इस बात पर ध्यान देने की थी कि अब से सैनिकों की वापसी शुरू होने तक की अवधि में क्या होगा। इस बीच अमेरिकी रणनीति क्या होगी और उसका पाकिस्तानियों और जिहादी गुटों पर क्या असर होगा। हमारे पूर्वाग्रही टीकाकारों का हाल यह है कि वे अमेरिकी नीतियों में या पाकिस्तान के साथ उसके संबंधों में बदलाव की कल्पना कर ही नहीं सकते। यह ठीक है कि दोनों के संबंधों के लंबे इतिहास को देखते हुए किसी भी आकलन में उसे ध्यान में रखना स्वाभाविक है, लेकिन भविष्य आधारित आकलन में इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि क्या-क्या जारी न रहने की संभावना बन सकती है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी के निदेशक द्वारा कांग्रेस में रखी रिपोर्ट को ही लीजिए जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तानी सेना जिहादी संगठनों को भारत के खिलाफ अपनी महत्वपूर्ण ढाल मानती है। क्या अमेरिका के पास ऐसे आकलन का कोई ठोस आधार है? देश को ऐसे आकलनों से फायदा होगा जो नए प्रश्न खड़े करे। उठाए गए प्रश्नों का कोई ठोस उत्तर नहीं दिया जा सकता, लेकिन उनसे संभावनाओं को तलाशने का दायरा तो बढ़ता ही है। यदि सरकार के स्तर पर ऐसे आकलन होते रहे हैं तो वे हमारी प्रतिक्रिया में भी झलकने चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश में सरकार और मीडिया के बीच संवाद में इसकी अपेक्षा की जाती है
बीटी बैगन का भविष्य
भारत सरकार द्वारा गठित जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने अक्टूबर 2009 में बीटी बैगन को पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित बताते हुए अपनी स्वीकृति दे दी। इसके बाद से ही विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। इसे देखते हुए सरकार ने देश भर में जनसुनवाई करने का निर्णय किया। आठ दौर की जनसुनवाई की अंतिम बैठक छह फरवरी को समाप्त हो गई। इस पर 10 फरवरी को अंतिम निर्णय लिया जाएगा। बीटी बैगन को महिको ने अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो के साथ मिलकर विकसित किया है। बीटी बैगन में मिट्टी में पाया जाने वाला क्राई 1 एसी नामक जीन डाला गया है। इससे निकलने वाले जहरीले प्रोटीन को खाने से बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले फ्रूट एंड शूट बोरर नामक कीड़े मर जाएंगे। दरअसल, बीटी बैगन को लेकर आशंकाएं कम नहीं हैं। सामान्यतया एक ही फसल की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती हैं लेकिन जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी अन्य पौधे या जंतु का जीन का किसी पौधे या जीव में प्रवेश कराया जाता है जैसे सूअर का जीन मक्का में। इसी कारण यह उपलब्धि संदिग्ध बन गई है। डा. पुष्प भार्गव उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित दो सदस्यीय पैनल के सदस्य हैं। इनके अनुसार किसी भी जीएम बीज को अनुमति देने से पहले कम से कम 30 महत्वपूर्ण परीक्षण अनिवार्य हैं। इसके विपरीत जीईएसी केवल तीन परीक्षण करती है। कई महत्वपूर्ण प्रयोग नहीं किए जाते। जीईएसी कंपनियों द्वारा दिए गए सैंपल की जांच करती है जबकि नियमत: उसे खुद सैंपल एकत्र करने चाहिए। फिर विश्व के 180 देशों में जीएम खेती या उत्पादों पर पूरी तरह रोक लगी हुई है। विश्व की 75 प्रतिशत जीएम खेती चार देशों (अमेरिका, कनाडा, ब्राजील व अर्जेंटीना) में होती है। यहां भी सिर्फ चार फसलें (कपास, सोयाबीन, मक्का, कैनोला) में ही जीन संवर्द्धन की छूट है। इनमें से अधिकांश का प्रयोग जैव ईंधन के लिए किया जाता है। बीटी बैगन की रोग प्रतिरोधकता और अधिक उत्पादकता के दावे को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। अब तक के अनुभवों से यही प्रमाणित होता है कि अन्य परिस्थितियों के अनुकूल रहने पर जीएम बीज शुरू में अच्छी पैदावार देते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उत्पादकता में कमी आने लगती है। तीन-चार वषरें में ही खेत में ऐसे कीट पैदा हो जाते हैं जिनके लिए अधिक शक्तिशाली रसायनों की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए बीटी कपास में बालवर्म के विरुद्ध प्रतिरोधकता मौजूद थी, लेकिन पिछले कुछ वषरें से कई अन्य कीटों (बालवीवल, आर्मीबर्म तथा ह्वाइट फ्लाई) ने कपास की फसल को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया। अब तो बालवर्म में भी प्रतिरोधकता उत्पन्न हो रही है। केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, माटुंगा (मुंबई) की रिपोर्ट के अनुसार 2008-09 में बीटी कपास के 12 प्रतिशत फूल बालवर्म चट कर गए जबकि चार साल पहले तक मात्र तीन प्रतिशत कपास में ही बालवर्म लगते थे। विशेषज्ञों के अनुसार बालवर्म इसी रफ्तार से बढ़े तो बीटी कपास की 30 प्रतिशत फसल बर्बाद हो जाएगी। कड़वा सच यह है कि जीएम तकनीक के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरे विश्व की खाद्य श्रृंखला पर कब्जा जमाने की मुहिम में जुट गई हैं। आहार का आधार खेती है और खेती का आधार बीज। एक बार बीजों के मामले में पराधीन हो जाने पर किसी भी देश की राजनीतिक-आर्थिक स्वतंत्रता व खाद्य सुरक्षा सदा के लिए खत्म हो जाती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह कार्य बीजों की विविधता खत्म करके कर रही हैं। उदाहरण के लिए 1959 में श्रीलंका में 2000 किस्मों के धान की खेती होती थी लेकिन अब वहां 100 से भी कम किस्मों की खेती हो रही है। भारत में भी पिछली आधी शताब्दी के दौरान फसलों की 1,000 किस्में गायब हो गईं। हरित क्रांति को रक्तिम क्रांति में बदलने में एक-दो फसलों की खेती (मोनोकल्चर) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जीएम फसलों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के अभी तक जो अध्ययन हुए हैं उनसे सिद्ध हो चुका है कि बीटी बैगन खाने के बाद गाय, बकरी, खरगोश, मछलियां और चूहे जैसे जीवों को गंभीर बीमारियों ने घेर लिया। अधिकतर जीवों के आंतरिक अंगों में विकृतियां आईं और उनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति भी कम हुई। महिको ने बीटी बैगन के गुणों को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, लेकिन संभावित दुष्परिणामों को जानबूझकर छिपाया। ऐसे में अधिक उत्पादन के मोह में पड़कर बीटी बैगन पर जल्दबाजी में कोई निर्णय करने से पहले बीज बाजार पर एकाधिकार रोकने, जैव विविधता संरक्षण, छोटे किसानों के हित, लेबलिंग व्यवस्था, जन स्वास्थ्य आदि को भी ध्यान में रखना होगा।
Monday, February 1, 2010
बीटी बैंगन के नफा-नुकसान
बीटी बैंगन को लेकर इन दिनों सरकार और जागरूक समाज में बहस छिड़ी है। सरकार विदेशी कंपनियों के दबाव में है। दूसरी ओर देश के भीतर इस बैंगन के खिलाफ सरकार पर दबाव बनाने की कोशिशें जारी हैं। आखिरकार ये बीटी बैंगन क्या है जिस पर इतना बवेला मचा है। साधारण बैंगन की भांति ही दिखने वाले इस खास बैंगन की बुनियादी बनावट में फर्क है। इसके पौधे, हर कोशिका में एक खास तरह का जहर पैदा करने वाला जीन होता है। इस बीटी यानी बेसिलस थिरूंजेनेसिस नामक एक बैक्टीरिया से निकालकर बैंगन की कोशिका में प्रवेश करा दिया गया है। जीन को, पौधे में प्रवेश कराने की प्रक्रिया बहुत ही पेचीदा और महंगी है। इसे जेनेटिकली माडीफाइड (जीएम) का नाम दिया गया है। भारत में इसका सबसे पहला प्रयोग मध्यप्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के खेतों में बीटी बैंगन की प्रयोगात्मक फसलों की जांच की गई। पता चला कि बैंगन में प्राय: लगने वाले 70 प्रतिशत कीट इसमें मर जाते हैं। यही इसका सकारात्मक पहलू है। हालांकि प्राणियों पर इसका बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ लेकिन जितना भी हुआ उससे यही बात सामने निकल कर आई कि यह सेहत के लिए नुकसानदायक है। बीटी बैंगन खाने वाले चूहों के फेफड़ों में सूजन, अमाशय में रक्तस्राव, संतानों की मृत्युदर में वृद्धि जैसे बुरे प्रभाव दिखे। अमेरिकन एकेडमी आफ इनवायरमेंट मेडिसिन (एएइएस) का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। विषाक्ता, एलर्जी और प्रतिरक्षण, प्रजनन, स्वास्थ्य, चय-अपचय, पचाने की क्रियाओं पर तथा शरीर और अनुवांशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें, उनसे बनी खाने-पीने की चीजें भयानक ही होंगी। भारत में इस तकनीक से बने कपास के बीज बोए जा चुके हैं। ऐसे में खेतों में काम करने वालों में एलर्जी होना आम बात है। यदि पशु ऐसे खेत में चरते हैं तो उनके मरने की आशंका बढ़ती है। भैंसे बीटी बिनौले की चरी खाकर बीमार पड़ती हैं। उनकी चमड़ी खराब हो जाती है व दूध कम हो जाता है। साथ ही इन पौधों को उपजाने से जमीन, खेत, जल, जहरीला होता है, तितली, केंचुए भी कम हो जाते हैं। जीएम बीजों से देश की पारंपरिक खेती नष्ट हो जाएगी। मात्र खर पतवार की समाप्ति के लिए जीएम फसलों की कोई जरूरत नहीं है। पिछले चार साल में दुनिया भर के 400 कृषि वैज्ञानिकों ने मिलकर एक आकलन किया है। विकास के लिए कृषि, विज्ञान और तकनीकी का इसे अंतरराष्ट्रीय आकलन माना गया है। उनका निष्कर्ष है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग या नेनो टेक्नॉलाजी जैसे उच्च प्रौद्योगिकी में इसका समाधान नहीं है। समाधान तो मिलेगा छोटे पैमाने पर, पर्यावरण की दृष्टि से ठीक खेती में।
बीटी बैंगन
1990 के उत्तरार्ध में आनुवंशिक रूप से सवंर्धित यानी जैनेटिकली माडिफाइड (जीएम) फसलों की व्यावसायिक खेती प्रांरभ होने के बाद भी अब तक इसकी खेती पर विवाद बरकरार है। आज भी विश्व में 30 करोड़ एकड़ भूमि पर जीएम फसलें उगाई जाती हैं जो कुल कृषि भूमि का महज 2.6 प्रतिशत है। इनमें भी जो फसलें उगाई जाती हैं उनका इस्तेमाल खाने के लिए न के बराबर किया जाता है। गत दिनों जैव प्रौद्योगिकी नियामक समिति (जीईएसी) द्वारा बीटी बैंगन की खेती को मंजूरी के बाद इसकी संभावना जताई जा रही है कि जल्द ही भारत खाद्य श्रेणी की फसलों की खेती करने वाला देश बन जाएगा। हालांकि देश में सरकार के इस प्रयास के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं। भूमंडलीकरण के युग में जब अर्थव्यवस्था में निर्यात की महत्वपूर्ण भूमिका हो, इस पहलू पर भी गौर करना जरूरी है कि जीएम फसलों की व्यावसायिक खेती की अनुमति देने से देश के खाद्य निर्यात पर क्या असर पड़ेगा। भले ही भारत, चीन समेत कई विकासशील देश खाद्य श्रेणी की जीएम फसलों की खेती की ओर अग्रसर हों, लेकिन विकसित देशों खासकर यूरोप में जीएम फसलों के खिलाफ माहौल बनता जा रहा है। यूरोपीय संघ के अधिकांश देशों के किसान जीएम फसलों के विरोध में खड़े हो रहे हैं। यूरोप में 1998 में अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो द्वारा विकसित मान 810 मक्के की खेती की इजाजत दे दी गई थी, लेकिन बीते वर्ष के शुरू में किसानों, पर्यावरण संरक्षण समूहों, कृषि विशेषज्ञों एवं समाज के अन्य तबकों के जबरदस्त विरोध के चलते सरकार ने इस निर्णय को वापस ले लिया। हाल ही में फ्रांस के केन विश्वविद्यालय में शोधकर्ताओं द्वारा इस पर किए गए शोध के निष्कर्ष सार्वजनिक किए गए हैं। शोध के मुताबिक आनुवांशिक रूप से संशोधित मक्का खाने से पशुओं के आंतरिक अंगों में नुकसान के लक्षण पाए गए। प्रयोग के दौरान तीन माह तक चूहों को जीएम मक्का खिलाया गया था। इस दौरान उनमें लीवर और किडनी को नुकसान के स्पष्ट संकेत मिले। फ्रांस सरकार द्वारा जीएम फसलों पर कराए गए एक सर्वेक्षण में 77 प्रतिशत लोगों ने जीएम फसल को नापसंद करते हुए देश में जीएम मक्के की खेती को स्थगित करने के निर्णय का स्वागत किया है। यूरोपीय संघ के 27 देशों के किसान पर्यावरणीय, फसल में क्रास परागण के खतरे व स्वास्थ्य कारणों से जीएम फसलों का विरोध कर रहे हैं। किसान समूहों के दबाव में यूरोपीय खाद्य सुरक्षा अथोरिटी (ईएफएमए) द्वारा खाद्य पदाथरें की गुणवत्ता जांच में अपनाए जाने वाले तौरतरीकों को अत्यधिक सख्त बनाया जा रहा है। जर्मनी में सभी 16 राज्यों में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की जांच करने के लिए प्रयोगशाला स्थापित की गई है, जहां प्रतिवर्ष हजारों खाद्य पदार्थों की जांच परख की जाती है। भारत में खाद्य श्रेणी की फसलों को अनुमति देते समय यूरोप में चल रहे इस विरोध पर ध्यान देना अत्यंत जरूरी है क्योंकि यूरोप भारतीय कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों का प्रमुख आयातक है। भारत यूरोपीय देशों के बाजारों में निर्यात संवर्धन के लिए निगाहें जमाए हुए है। ये देश भारत से सब्जियों, बासमती चावल व मसालों का बड़े पैमाने पर आयात करते हैं। वित्त वर्ष 2008-09 में यूरोपीय देशों ने भारत से 32 अरब रुपए के मूल्य के कृषि उत्पादों का आयात किया था। यदि भारत खाद्य श्रेणी की जीएम फसलों की व्यावसायिक खेती की इजाजत देता है तो उसका असर निर्यात पर पड़ सकता है। कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) अपनी एक रिपोर्ट में पहले ही स्वीकार कर चुका है कि यूरोप के गुणवत्ता संबधी सख्त नियम, खासकर कीटनाशी अवशेष संबधी, निर्यात में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। कुछ समय पहले ही अमेरिका से आने वाले मालवाहक जहाजों को यूरोप में इसलिए नहीं घुसने दिया गया क्योंकि कार्गो में बीटी मक्का पाया गया था। अगर खाद्य श्रेणी की जीएम फसलों की खेती की इजाजत दी जाती है तो भारत यूरोप मे अपना निर्यात बाजार गंवा सकता हैकृषि व पर्यावरण वैज्ञानिकों ने बीटी बैगन को भले ही खेती के लायक बता दिया हो, लेकिन इसकी राह में अब राजनीति आड़े आ गई है। राजनीतिक उलझाव को देखते हुए सरकार को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है। बीटी बैगन की खेती को मंजूरी देने के खिलाफ राज्य सरकारों की त्यौरियां चढ़ने लगी हैं। पर्यावरण संरक्षण और किसान संगठनों ने भी जीईएसी के फैसले की आलोचना करते हुए तीखा तेवर अपना लिया है। बीटी बैगन के विवाद में यूपीए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस खुद भी कूद गई है। केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कृषि मंत्री शरद पवार को इसके बारे में एक विस्तृत पत्र लिखा है। जीईएसी की वैधानिकता को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा है कि लोगों के हित व भावनाओं का सम्मान करना भी सरकार के अधिकार क्षेत्र में है। कृषि मंत्री शरद पवार की हरी झंडी के बावजूद जयराम रमेश देश भर में जन अदालत आयोजित कर इस मुद्दे पर लोगों की राय ले रहे हैं। उत्तरी क्षेत्र से लेकर दक्षिणी हिस्से में बीटी बैगन का विरोध हो रहा है। चंडीगढ़, कोलकाता, हैदराबाद, भुवनेश्वर, अहमदाबाद और नागपुर में आयोजित जन अदालतों में बीटी बैगन को लेकर उन्हें तीखा विरोध झेलना पड़ा है। इस दौरान जयराम रमेश को कहना पड़ा कि बीटी बैगन की व्यावसायिक खेती से पहले उसके सभी पहलुओं पर विचार किया जाएगा। बैगन की खेती वाले प्रमुख राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार ने सबसे पहले विरोध जताया है। इसके अलावा विरोध जताने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश, पंजाब और कर्नाटक प्रमुख हैं। ये सभी राज्य गैर कांग्रेस शासित हैं। कृषि मंत्रालय का कहना है कि बीटी बैगन को जारी करने से पहले जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) की मंजूरी ली गई थी। इस लंबी चौड़ी कमेटी के सिर्फ एक सदस्य पी.एम. भार्गव ने इसका विरोध किया था, जो प्रख्यात वैज्ञानिक हैं इसलिए इस फैसले के विरोध का कोई औचित्य नहीं है। हालांकि बीटी बैगन के विरोध से सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएंगी।
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