नैतिकता की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह कहां और कब से लागू हो कोई भी तय कर सकता है और जो इसका हिसाब करने निकलेगा वो गणित में फेल होकर केमिस्ट्री में टॉपर बनके निकलेगा। राज्यपाल कौन बनेगा और कैसे हटेगा ये दो वक्त है जब पता चलता है कि राज्यपाल भी होते हैं। संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा के जो मॉडल होते हैं वो अस्थायी मनमाने और सरकार सापेक्षिक होते हैं। सत्ता पक्ष के लिए कुछ और विपक्ष के लिए कुछ।
पूर्व चीफ जस्टिस पी सदाशिवम राज्यपाल भी बनने जा रहे हैं। भले ही दिल्ली में लोग बयानों में उलझे हैं कि किसी चीफ जस्टिस को राज्यपाल बनना चाहिए या नहीं। कांग्रेस ने ही चीफ जस्टिस दिवंगत रंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा का सांसद बनाया था चीफ जस्टिस तमाम आयोगों के अध्यक्ष बनते रहे हैं। कानून सुधार पर सरकार की बनाई कमेटियों के अध्यक्ष बन सकते हैं तो राज्यपाल क्यों नहीं।
1997 में सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज जस्टिस फातिमा बीबी को भी तमिलनाडू का गवर्नर बनाया गया था। जब सेना प्रमुख, गृह सचिव, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस, जस्टिस राज्यपाल बन सकते हैं तो चीफ जस्टिस क्यों नहीं। परंपरा नहीं थी तो क्या बन नहीं सकती है।कांग्रेस एनसीपीसीपीआई तमाम दलों के आरोप कि अमित शाह को ज़मानत देने के कारण उन्हें पद से नवाज़ा गया है। क्या वाकई दूर तक टिकते हैं।
जिसका जवाब देते हुए सदाशिवम ने कहा कि किसे पता था कि अमित शाह बीजेपी के अध्यक्ष बन जाएंगे। हमने मेरिट के आधार पर फैसला किया और उन्हें कोई क्लिन चिट नहीं दी है। तुलसीराम प्रजापति केस में जो दूसरी एफआईआर दर्ज की गई थी, उसे रद्द किया गया था। दो-दो एफआईआर संभव नहीं है। सोहराबुद्दीन केस को महाराष्ट्र मैंने शिफ्ट किया था। उसी फैसले में अदालत ने सीबीआई को शाह के खिलाफ पूरक चार्जशीट दायर करने की अनुमति भी दी थी। वैसे मैंने तो कई दलों के मामले में फैसला दिया है। मेरे खिलाफ इस तरह की बातें दुखद हैं।
सदाशिवम ने कहा कि अगर मैं इस प्रस्ताव को मना कर दूंगा तो गांव में खेती करनी पड़ेगी। यह भी ठीक है, खेती करने से बचना हो तो राज्यपाल बन जाना चाहिए।
इस अप्रैल में रिटायर होने के वक्त ही पी सदाशिवम ने अगर उन्हें कोई संवैधानिक पद मिला तो स्वीकार कर सकते हैं। उन्होंने कहा था कि जज के तौर पर हमें तनख्वाह तो सरकार से ही मिलती है तो क्या हम सरकार का फेवर करते हैं। जजों को रिटायरमेंट के बाद पद लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर सहमति से फैसला हो तो मैं लोकपाल भी बनने के लिए तैयार हूं। वैसे सदाशिवम के फैसले के कारण ही नरेंद्र मोदी को नोमिनेशन पेपर में पत्नी का नाम लिखना पड़ा था। फिर भी कांग्रेस नेता
आनंद शर्मा ने कहा कि देश में कई पूर्व चीफ जस्टिस मौजूद हैं। सिर्फ इन्हें ही क्यों चुना गया। पहले कभी चीफ जस्टिस को राज्यपाल नहीं बनाया गया है।
दो मुख्य न्यायाधीश उप-राष्ट्रपति भी बने हैं। कोई साज़िश नज़र आती है। उन्होंने प्रधानमंत्री और अमित शाह को खुश करने के लिए ज़रूर कुछ किया होगा। बीजेपी बताए कि उसने जजों को रिटायरमेंट के बाद पद न देने का अपना स्टैंड क्यों बदला।
दरअसल समस्या यही है। गूगल दौर में तुरंत का तुरंत सबका खतिहान निकल आता है। कांग्रेस बीजेपी सबका। 2012 में अपनी पार्टी के लीगल सेल के एक कांफ्रेंस में अरुण जेटली का भाषण प्रासंगिक हो गया है। जिसमें वे कह रहे हैं कि जजों में रिटायरमेंट के बाद पद लेने की जो होड़ है उससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर असर पड़ रहा है। न्यायिक फैसलों के ज़रिये रिटायरमेंट के बाद के पद बनाए जा रहे हैं। जजों का कायर्काल तय किया जाए और उनका पेंशन उनके आखिरी वेतन के बराबर हो।
जेटली की बात का समर्थन तब के पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी किया और कहा कि रिटायरमेंट के बाद जजों को दो साल तक के लिए कोई पद नहीं देना चाहिए। वर्ना सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोर्ट को प्रभावित कर सकती है और इस देश में स्वतंत्र निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी पूरा नहीं हो सकेगा। गडकरी ने कहा कि मैं यह बात ज़िम्मेदारी से कहता हूं कि रिटायर होने से पहले सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के लिए तय हो जाता है कि कौन सा आयोग किसको मिलेगा।
समस्या यही है। दोनों ने इतनी ज़िम्मेदारी से यह बात कह दी कि अब उसी बात की जवाबदेही पूछी जा रही है। आखिर विपक्ष में रहते हुए कही गईं इन अच्छी बातों का सत्ता में आने पर कुछ तो इस्तेमाल होना चाहिए। जेटली के बयान का यह अंश बीजेपी का पीछा कर रहा है कि जजों में बैलेट बाक्स का अनुसरण करने की जो प्रवृत्ति है, उससे बचने की ज़रूरत है। इतना ही नहीं, जब फरवरी 2013 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन रिटायर्ड जस्टिस काटजू ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की आलोचना की, तब जेटली ने जवाब दिया था कि अभी भी ट्राइब्यूनल अर्ध-न्यायिक पदों का सिस्टम चलता आ रहा है जो इन रिटायर्ड जजों से भरा जाता है। सेवानिवृत जजों को याद रखना चाहिए कि ल्युटियन दिल्ली के बंगले का किराया राजनीतिक तरफदारी से नहीं बल्कि राजनीतिक तटस्थता से तय होना चाहिए।
दो तरह के जज होते हैं। एक जो कानून जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं। जेटली का यह अमर वाक्य क्या सदाशिवम पर भी लागू होता है। या वो तीसरे प्रकार के जज हैं जो किसी को नहीं जानते फिर भी राज्यपाल बन जाते हैं। क्या चीफ जस्टिस ने वाकई पद की गरिमा कम की है।
पूर्व चीफ जस्टिस पी सदाशिवम राज्यपाल भी बनने जा रहे हैं। भले ही दिल्ली में लोग बयानों में उलझे हैं कि किसी चीफ जस्टिस को राज्यपाल बनना चाहिए या नहीं। कांग्रेस ने ही चीफ जस्टिस दिवंगत रंगनाथ मिश्रा को राज्यसभा का सांसद बनाया था चीफ जस्टिस तमाम आयोगों के अध्यक्ष बनते रहे हैं। कानून सुधार पर सरकार की बनाई कमेटियों के अध्यक्ष बन सकते हैं तो राज्यपाल क्यों नहीं।
1997 में सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज जस्टिस फातिमा बीबी को भी तमिलनाडू का गवर्नर बनाया गया था। जब सेना प्रमुख, गृह सचिव, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस, जस्टिस राज्यपाल बन सकते हैं तो चीफ जस्टिस क्यों नहीं। परंपरा नहीं थी तो क्या बन नहीं सकती है।कांग्रेस एनसीपीसीपीआई तमाम दलों के आरोप कि अमित शाह को ज़मानत देने के कारण उन्हें पद से नवाज़ा गया है। क्या वाकई दूर तक टिकते हैं।
जिसका जवाब देते हुए सदाशिवम ने कहा कि किसे पता था कि अमित शाह बीजेपी के अध्यक्ष बन जाएंगे। हमने मेरिट के आधार पर फैसला किया और उन्हें कोई क्लिन चिट नहीं दी है। तुलसीराम प्रजापति केस में जो दूसरी एफआईआर दर्ज की गई थी, उसे रद्द किया गया था। दो-दो एफआईआर संभव नहीं है। सोहराबुद्दीन केस को महाराष्ट्र मैंने शिफ्ट किया था। उसी फैसले में अदालत ने सीबीआई को शाह के खिलाफ पूरक चार्जशीट दायर करने की अनुमति भी दी थी। वैसे मैंने तो कई दलों के मामले में फैसला दिया है। मेरे खिलाफ इस तरह की बातें दुखद हैं।
सदाशिवम ने कहा कि अगर मैं इस प्रस्ताव को मना कर दूंगा तो गांव में खेती करनी पड़ेगी। यह भी ठीक है, खेती करने से बचना हो तो राज्यपाल बन जाना चाहिए।
इस अप्रैल में रिटायर होने के वक्त ही पी सदाशिवम ने अगर उन्हें कोई संवैधानिक पद मिला तो स्वीकार कर सकते हैं। उन्होंने कहा था कि जज के तौर पर हमें तनख्वाह तो सरकार से ही मिलती है तो क्या हम सरकार का फेवर करते हैं। जजों को रिटायरमेंट के बाद पद लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर सहमति से फैसला हो तो मैं लोकपाल भी बनने के लिए तैयार हूं। वैसे सदाशिवम के फैसले के कारण ही नरेंद्र मोदी को नोमिनेशन पेपर में पत्नी का नाम लिखना पड़ा था। फिर भी कांग्रेस नेता
आनंद शर्मा ने कहा कि देश में कई पूर्व चीफ जस्टिस मौजूद हैं। सिर्फ इन्हें ही क्यों चुना गया। पहले कभी चीफ जस्टिस को राज्यपाल नहीं बनाया गया है।
दो मुख्य न्यायाधीश उप-राष्ट्रपति भी बने हैं। कोई साज़िश नज़र आती है। उन्होंने प्रधानमंत्री और अमित शाह को खुश करने के लिए ज़रूर कुछ किया होगा। बीजेपी बताए कि उसने जजों को रिटायरमेंट के बाद पद न देने का अपना स्टैंड क्यों बदला।
दरअसल समस्या यही है। गूगल दौर में तुरंत का तुरंत सबका खतिहान निकल आता है। कांग्रेस बीजेपी सबका। 2012 में अपनी पार्टी के लीगल सेल के एक कांफ्रेंस में अरुण जेटली का भाषण प्रासंगिक हो गया है। जिसमें वे कह रहे हैं कि जजों में रिटायरमेंट के बाद पद लेने की जो होड़ है उससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर असर पड़ रहा है। न्यायिक फैसलों के ज़रिये रिटायरमेंट के बाद के पद बनाए जा रहे हैं। जजों का कायर्काल तय किया जाए और उनका पेंशन उनके आखिरी वेतन के बराबर हो।
जेटली की बात का समर्थन तब के पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी किया और कहा कि रिटायरमेंट के बाद जजों को दो साल तक के लिए कोई पद नहीं देना चाहिए। वर्ना सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोर्ट को प्रभावित कर सकती है और इस देश में स्वतंत्र निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी पूरा नहीं हो सकेगा। गडकरी ने कहा कि मैं यह बात ज़िम्मेदारी से कहता हूं कि रिटायर होने से पहले सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के लिए तय हो जाता है कि कौन सा आयोग किसको मिलेगा।
समस्या यही है। दोनों ने इतनी ज़िम्मेदारी से यह बात कह दी कि अब उसी बात की जवाबदेही पूछी जा रही है। आखिर विपक्ष में रहते हुए कही गईं इन अच्छी बातों का सत्ता में आने पर कुछ तो इस्तेमाल होना चाहिए। जेटली के बयान का यह अंश बीजेपी का पीछा कर रहा है कि जजों में बैलेट बाक्स का अनुसरण करने की जो प्रवृत्ति है, उससे बचने की ज़रूरत है। इतना ही नहीं, जब फरवरी 2013 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन रिटायर्ड जस्टिस काटजू ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की आलोचना की, तब जेटली ने जवाब दिया था कि अभी भी ट्राइब्यूनल अर्ध-न्यायिक पदों का सिस्टम चलता आ रहा है जो इन रिटायर्ड जजों से भरा जाता है। सेवानिवृत जजों को याद रखना चाहिए कि ल्युटियन दिल्ली के बंगले का किराया राजनीतिक तरफदारी से नहीं बल्कि राजनीतिक तटस्थता से तय होना चाहिए।
दो तरह के जज होते हैं। एक जो कानून जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं। जेटली का यह अमर वाक्य क्या सदाशिवम पर भी लागू होता है। या वो तीसरे प्रकार के जज हैं जो किसी को नहीं जानते फिर भी राज्यपाल बन जाते हैं। क्या चीफ जस्टिस ने वाकई पद की गरिमा कम की है।
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