ब्राजील के फोर्टेलिजा शहर में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण उपलब्धि रही ब्रिक्स विकास बैंक की स्थापना की घोषणा। यूं पहले के सम्मेलनों में इस आशय के प्रस्ताव आए, लेकिन उसे मूर्तरूप दिए जाने में अड़चनें आती रहीं। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के इस संगठन में आर्थिक रूप से सबसे अधिक संपन्न और सक्षम चीन ही है, इसलिए उसकी स्वाभाविक इच्छा थी कि उसका वर्चस्व इस बैंक पर रहे। इसके लिए उसका प्रस्ताव था कि ब्रिक्स बैंक में सदस्यों की हिस्सेदारी उनके जीडीपी के मुताबिक रहे। इस स्थिति में पलड़ा हमेशा चीन का ही भारी रहता। अन्य देशों को यह स्थिति कतई मंजूर नहींथी। इसलिए बैंक स्थापित करने का प्रस्ताव टलता रहा। लेकिन इस बार सबके बीच सहमति बनी कि सौ अरब डालर की संयुक्त पूंजी से इस बैंक को बनाया जाए।
बैंक की स्थापना का उद्देश्य सदस्य देशों के अलावा विकासशील देशों में आधारभूत संरचना के विकास के लिए क़र्ज़ देना है. बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में होगा, एक क्षेत्रीय कार्यालय दक्षिण अफ्रीका में होगा, तथा इसका सबसे पहला अध्यक्ष भारत से होगा। ब्रिक्स देशों को एक अलग विकास बैंक की ज़रुरत क्यों पड़ी? अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी वित्तीय संस्थाएं विकासशील देशों को उनकी ज़रुरत के हिसाब से क़र्ज़ देने में नाकाम रही हैं.
इन तमाम बातों से महत्वपूर्ण यह है कि विश्व के कारोबार, अर्थव्यवस्था, विकासशील और पिछड़े देशों में आर्थिक दखल देने वाले वल्र्ड बैंक और इंटरनेशनल मानेटरी फंड (आईएमएफ) के बढ़ते वर्चस्व और प्रभुत्व को रोका जा सकेगा, संतुलित किया जा सकेगा। भारत जैसे विकासशील देश से अधिक इस बात को कौन समझ सकता है कि किस तरह विकास को बढ़ावा देने की आड़ में ये दोनों वित्तीय संस्थाएं तरह-तरह की शर्तों और प्रावधानों के साथ ऋण देती हैं। इस ऋण से एक ओर निर्माण के भारी-भरकम कार्य होते दिखते हैं और दूसरी ओर चुपके से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर ऐसा प्रहार होता है कि आजीवन ऋण के चंगुल में देश फंस जाता है। फिर ऋणमुक्ति के नाम पर देश की राजनैतिक व्यवस्था में दखलंदाजी होती है, सरकारों को कठपुतली की तरह नचाया जाता है। अमरीका और यूरोप की समूची दुनिया में दादागिरी इन दो संस्थाओं के बल पर ही कायम हुई है। यह अकारण नहींहै कि विश्वबैंक का अध्यक्ष हमेशा कोई अमरीकी और आईएमएफ का अध्यक्ष कोई यूरोपीय रहता आया है। बहरहाल ब्रिक्स विकास बैंक के निर्माण से यह उम्मीद जरूर कायम हुई है कि दुनिया के विकासशील और पिछड़े देशों को वल्र्ड बैंक और आईएमएफ पर निर्भर होने की आवश्यकता नहींरहेगी। यह बैंक न केवल ब्रिक्स के सदस्य देशों वरन अन्य देशों को भी उनकी जरूरत के मुताबिक कर्ज देगा। विश्व बैंक और आईएमएफ ने आर्थिक वर्चस्व तो बनाए रखा, किंतु ढांचागत परियोजनाओं व अन्य जरूरतों के लिए जितने कर्ज की आïवश्यकता होती है, उतना वे कभी नहींदे पाए। विश्व बैंक की ही वेबसाइट बताती है कि विकासशील देशों को हर साल 40 से 60 अरब डालर के करीब कर्ज दिया जाता है, जबकि उनकी जरूरत एक खरब डालर के आसपास है। ब्रिक्स विकास बैंक विकासशील देशों की जरूरत के मुताबिक उन्हें कर्ज मुहैया कराएगा, तो विश्वबैंक और आईएमएफ पर निर्भरता कम होगी।
पिछले कुछ सालों से वैश्विक मंदी के कारण अमरीका व यूरोप की अर्थव्यवस्था डांवाडोल रही है, जबकि ब्रिक्स देश इस मंदी में संभले रहे। इसका कारण उनकी पारंपरिक आर्थिक नीतियां रही हैं। ब्रिक्स विकास बैंक भी कम समय में अधिक मुनाफा कमाने के फेर में पड़े बिना पारंपरिक आर्थिक नीतियों को अपनाए रहेगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था में आने वाले उतार-चढ़ाव में खुद को संभाले रहेगा, तो इससे न केवल उसके सदस्य देशों को लाभ होगा, बल्कि विश्व के कई मंझोले और छोटे देश भी लाभान्वित होंगे। विश्व के विकसित देशों की तरह विकासशील देशों में अधोसंरचना का विकास हो, सड़क, रेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग जैसे अनेक क्षेत्रों में समान रूप से बढऩे के अवसर मिलें तो मौजूदा वक्त के कई संकटों से निजात पायी जा सकती है। विश्व शांति और मानवता के विकास के लिए यह जरूरी है कि विश्व में आर्थिक असमानता निरंतर घटे। ब्रिक्स विकास बैंक इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
बैंक की स्थापना का उद्देश्य सदस्य देशों के अलावा विकासशील देशों में आधारभूत संरचना के विकास के लिए क़र्ज़ देना है. बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में होगा, एक क्षेत्रीय कार्यालय दक्षिण अफ्रीका में होगा, तथा इसका सबसे पहला अध्यक्ष भारत से होगा। ब्रिक्स देशों को एक अलग विकास बैंक की ज़रुरत क्यों पड़ी? अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी वित्तीय संस्थाएं विकासशील देशों को उनकी ज़रुरत के हिसाब से क़र्ज़ देने में नाकाम रही हैं.
विश्व बैंक की वेबसाइट के अनुसार बैंक विकासशील देशों को हर साल 40 से 60 अरब डॉलर के क़रीब क़र्ज़ देता है जबकि उन्हें विकास के लिए एक खरब डॉलर की ज़रूरत है.
इसके इलावा ब्रिक्स देशों को शिकायत है कि इन संस्थाओं में अमरीका और यूरोप के देशों का पलड़ा भारी रहा है. ऐसा लगता है कि अनौपचारिक रूप से विकसित देशों ने ये तय कर लिया है कि विश्व बैंक का अध्यक्ष अमरीकी होगा जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अध्यक्ष यूरोप से होगा.
नोबेल पुरस्कार विजेता और वित्तीय मामलों के जानकार जोजेफ़ स्टिग्लिट्ज़ कहते हैं कि ब्रिक्स बैंक एक ऐसा आइडिया है जिसके पूरा होने का समय आ गया है.
उनके अनुसार इस बैंक की ज़रुरत इसलिए है कि विकासशील देश अब इस बैंक से क़र्ज़ ले सकते हैं. इसके इलावा वो अमरीका और यूरोप के बजाए अब उभरते बाज़ार में निवेश कर सकते हैं जिससे विकसित देशों के वित्तीय वातावरण की अनिश्चितता से बचा जा सकता है.इन तमाम बातों से महत्वपूर्ण यह है कि विश्व के कारोबार, अर्थव्यवस्था, विकासशील और पिछड़े देशों में आर्थिक दखल देने वाले वल्र्ड बैंक और इंटरनेशनल मानेटरी फंड (आईएमएफ) के बढ़ते वर्चस्व और प्रभुत्व को रोका जा सकेगा, संतुलित किया जा सकेगा। भारत जैसे विकासशील देश से अधिक इस बात को कौन समझ सकता है कि किस तरह विकास को बढ़ावा देने की आड़ में ये दोनों वित्तीय संस्थाएं तरह-तरह की शर्तों और प्रावधानों के साथ ऋण देती हैं। इस ऋण से एक ओर निर्माण के भारी-भरकम कार्य होते दिखते हैं और दूसरी ओर चुपके से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर ऐसा प्रहार होता है कि आजीवन ऋण के चंगुल में देश फंस जाता है। फिर ऋणमुक्ति के नाम पर देश की राजनैतिक व्यवस्था में दखलंदाजी होती है, सरकारों को कठपुतली की तरह नचाया जाता है। अमरीका और यूरोप की समूची दुनिया में दादागिरी इन दो संस्थाओं के बल पर ही कायम हुई है। यह अकारण नहींहै कि विश्वबैंक का अध्यक्ष हमेशा कोई अमरीकी और आईएमएफ का अध्यक्ष कोई यूरोपीय रहता आया है। बहरहाल ब्रिक्स विकास बैंक के निर्माण से यह उम्मीद जरूर कायम हुई है कि दुनिया के विकासशील और पिछड़े देशों को वल्र्ड बैंक और आईएमएफ पर निर्भर होने की आवश्यकता नहींरहेगी। यह बैंक न केवल ब्रिक्स के सदस्य देशों वरन अन्य देशों को भी उनकी जरूरत के मुताबिक कर्ज देगा। विश्व बैंक और आईएमएफ ने आर्थिक वर्चस्व तो बनाए रखा, किंतु ढांचागत परियोजनाओं व अन्य जरूरतों के लिए जितने कर्ज की आïवश्यकता होती है, उतना वे कभी नहींदे पाए। विश्व बैंक की ही वेबसाइट बताती है कि विकासशील देशों को हर साल 40 से 60 अरब डालर के करीब कर्ज दिया जाता है, जबकि उनकी जरूरत एक खरब डालर के आसपास है। ब्रिक्स विकास बैंक विकासशील देशों की जरूरत के मुताबिक उन्हें कर्ज मुहैया कराएगा, तो विश्वबैंक और आईएमएफ पर निर्भरता कम होगी।
पिछले कुछ सालों से वैश्विक मंदी के कारण अमरीका व यूरोप की अर्थव्यवस्था डांवाडोल रही है, जबकि ब्रिक्स देश इस मंदी में संभले रहे। इसका कारण उनकी पारंपरिक आर्थिक नीतियां रही हैं। ब्रिक्स विकास बैंक भी कम समय में अधिक मुनाफा कमाने के फेर में पड़े बिना पारंपरिक आर्थिक नीतियों को अपनाए रहेगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था में आने वाले उतार-चढ़ाव में खुद को संभाले रहेगा, तो इससे न केवल उसके सदस्य देशों को लाभ होगा, बल्कि विश्व के कई मंझोले और छोटे देश भी लाभान्वित होंगे। विश्व के विकसित देशों की तरह विकासशील देशों में अधोसंरचना का विकास हो, सड़क, रेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग जैसे अनेक क्षेत्रों में समान रूप से बढऩे के अवसर मिलें तो मौजूदा वक्त के कई संकटों से निजात पायी जा सकती है। विश्व शांति और मानवता के विकास के लिए यह जरूरी है कि विश्व में आर्थिक असमानता निरंतर घटे। ब्रिक्स विकास बैंक इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।